ज्ञानेश्वरी पृ. 346

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग


संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरि: ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥9॥

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा-“हे कौरव कुल चक्रवर्ती! मुझे रह-रहकर एक बात का अत्यन्त विस्मय होता है। देखिये, इस त्रिलोकी में लक्ष्मी से बढ़कर सौभाग्यशाली और कौन है? अथवा वेदों के अतिरिक्त अन्य कौन-सा ऐसा साधन है जिसके द्वारा आत्मस्वरूप का कुछ ज्ञान हो सके? इसी प्रकार सेवकाई में शेषनाग से बढ़कर दूसरा और कौन है? आठों पहर योगियों की भाँति एकनिष्ठ होकर प्रेमपूर्वक नारायण की सेवा करने वाला गरुड़ के समान क्या और कोई भक्त भी है? परन्तु ये सब-के-सब एक ओर पड़े-के-पड़े रह गये और जिस दिन से इन पाण्डवों का जन्म हुआ, उसी दिन से माना श्रीकृष्ण के सुख को अपनी ओर खींचने वाला एक नवीन स्थल उदित हुआ है तथा पंच पाण्डवों में से भी इस अर्जुन के तो ये श्रीकृष्ण स्वयं ही पूरी तरह से अधीन हो गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि एक विषयी व्यक्ति को एक लावण्यवती ने लम्पट बना डाला है। कदाचित् कोई सिखाया हुआ पक्षी भी इस तरह न बोलता होगा, मनोरंजन के लिये पाला हुआ मृग भी ऐसी क्रीड़ा न करता होगा, जिस तरह ये श्रीकृष्ण अर्जुन के चक्कर में पड़कर पटापट बातें करते हैं और उसके साथ नृत्य तथा क्रीड़ा करते हैं। कुछ पता नहीं चलता कि इस अर्जुन का ऐसा कौन-सा भाग्योदय हुआ है!

स्वयं परब्रह्म का दर्शन करने का सौभाग्य इसकी आँखों को मिला हुआ है। देखिये, श्रीकृष्ण अर्जुन की बातों के एक-एक शब्द का कैसे प्रेम से पालन करते रहे हैं। यदि यह कोप भी करता है तो देव उसे आनन्दपूर्वक सहन करते हैं और यदि यह रूठ जाय तो देव उसको मनाते हैं। यह बहुत ही अद्भुत बात है कि अर्जुन के लिये श्रीकृष्ण ऐसे पागल हो रहे हैं। विषयों को जीत करके जो शुक इत्यादि योगी सामर्थ्यवान् बने थे, वही इन श्रीकृष्ण की रासलीला और विषय-विलास के वर्णन करते-करते इनके भाट बन गये। योगिजन आत्मचिन्तन की समाधि लगाकर इन श्रीकृष्ण का ध्यान करते हैं। पर हे राजन्! मुझे अत्यन्त विस्मय हो रहा है कि वही श्रीकृष्ण आज इस प्रकार पार्थ के वशीभूत हो रहे हैं।”

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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