श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
हे कमल के समान विशाल नेत्रों वाले और करोड़ों सूर्यों के समान तेज धारण करने वाले महेश! मैंने आज आपसे सम्यक् ज्ञान प्राप्त किया है। जिस माया से ये जीव मात्र उत्पन्न होते हैं और जिसके कारण ये अन्त में लय को प्राप्त होते हैं, उस माया का स्वरूप आपने मुझे स्पष्ट करके बतला दिया है और फिर मेरी वह माया दूर करके मुझे उस परब्रह्म के स्थान का दर्शन करा दिया है। जिस परब्रह्म का गौरव धारण करके वेद अब तक संसार में सुशोभित होते थे। यह जो साहित्य का सागर बढ़ रहा है और टिका हुआ है तथा धर्म-सिद्धान्तों के रत्न और मोती इत्यादि उत्पन्न कर रहा है, वह भी उस परमात्मा के तेज के लाभ का ही परिणाम है। इस प्रकार जो समस्त साधन-मार्गों का ही ध्येय परमात्मा है और जिसके माधुर्य का ज्ञान एकमात्र आत्मानुभव से ही हो सकता है, उस परमात्मा का अनन्त और अपार माहात्म्य आपने मुझे साफ-साफ बतला दिया है, जैसे आकाश के मेघों का जल बरस जाने पर सूर्यमण्डल दिखायी देने लगता है अथवा ऊपर की सेवार हाथ से हटाने पर नीचे का जल दृष्टिगोचर होने लगता है अथवा चन्दन के पेड़ पर कुण्डली मारकर बैठने वाले साँप को भगा देने पर चन्दन का पेड़ दृष्टिगत होने लगता है अथवा पिशाचों के भाग जाने पर पृथ्वी में गड़ा हुआ धन प्राप्त हो जाता है, ठीक वैसे ही बीच में पर्दे के समान पड़ी हुई यह माया (प्रकृति) आज आपने दूर हटाकर मेरी बुद्धि को परब्रह्मरूपी शय्या पर लिटा दिया है, अर्थात् मेरी मति तत्त्वनिष्ठ कर दी है। इसलिये हे देव, इस सम्बन्ध में अब मेरे मन में पूर्ण भरोसा हो गया है; पर अब मेरे चित्त में एक और नयी बात उत्पन्न हुई है। यदि मैं संकोचवश आपसे उस बात की चर्चा न करूँ तो फिर और किससे मैं वह बात पूछने जाऊँ? आपके अतिरिक्त मुझे और किसका आश्रय मिल सकता है? यदि जल में निवास करने वाले जीव अपने मन में इस बात का संकोच करें कि हमारे अमुक क्रिया-कलाप से जल को कष्ट होगा अथवा बालक यदि हठपूर्वक स्तनपान की याचना न करे तो उसके लिये जीवन धारण करने का और उपाय ही कौन-सा है? अत: अब मुझसे कुछ भी संकोच नहीं किया जाता। इस समय मेरे मन में जो बात आवे, वह मुझे आपसे स्पष्ट रूप से कह देनी चाहिये।” यह सुनकर श्रीकृष्ण बीच में ही बोल पड़े-“हे पार्थ! अब यह व्यर्थ का विस्तार छोड़ो। अब तुम मुझे यह साफ-साफ बतलाओ कि तुम्हारी और क्या इच्छा है?”[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (69-80)
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