ज्ञानेश्वरी पृ. 335

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग

जैसे सिंह एक कूप में अपनी ही प्रतिछाया देखकर यह समझ रहा हो कि यह मेरा कोई प्रतिद्वन्द्वी दूसरा सिंह है और इसी भ्रम में वह उस कूप में कूदना चाहता हो और तत्क्षण कोई बीच में आकर उसे आत्महत्या करने से बचा ले। बस ठीक इसी प्रकार आज आपने मुझे बचा लिया है, अन्यथा हे देव! मैंने तो आज यह निश्चय ही कर लिया था कि चाहे सातों समुद्र एक में क्यों न मिल जायँ, यह समस्त जगत् प्रलय के जल में क्यों न डूब जाय, चाहे ऊपर से आकाश ही क्यों न टूट पड़े, पर मैं अपने इन गोत्रजों से कभी युद्ध न करूँगा। ऐसे अहंकार के कारण मैं आग्रहरूपी जल में डूब ही गया था और यदि आप-जैसा सामर्थ्यवान् सुहृद् मेरे सन्निकट न होता तो फिर मुझे कौन सुरक्षित बाहर निकालता? जो चीज एकदम थी ही नहीं, उसके विषय में मैं जबरदस्ती मानता था कि वह है और उसी का नामकरण मैंने ‘गोत्र’ किया था। मेरा यह पागलपन था; पर आपने मेरी रक्षा की। एक बार आपने ही मुझे जलते हुए लाक्षागृह से सुखपूर्वक बाहर निकाला था; पर उस समय केवल मेरे शरीर के ही नष्ट होने का भय था, पर आज यह दूसरी पीड़ा तो मेरी आत्मा को ही विनष्ट कर देने वाली थी। जैसे हिरण्याक्ष ने पृथ्वी बगल में दबा ली थी, वैसे ही इस समय दुराग्रह ने भी मेरी बुद्धि अपने बगल में दबा ली थी और इस कारण जो उत्पात मचा, उससे मेरे अन्दर मोहरूपी समुद्र हिलोरे लेने लगा था। ऐसे कुसमय पर एकमात्र आपकी सामर्थ्य के कारण ही मेरी बुद्धि फिर से ठिकाने आयी है।

अतः मैं कह सकता हूँ कि आज आपको दूसरी बार वाराह अवतार ही धारण करना पड़ा। आपकी कृति असीम है और मैं अकेला भला उसका कहाँ तक वर्णन कर सकता हूँ। परन्तु निःसन्देह आज आपने मेरे पंचप्राण ही मुझे फिर से लौटाये हैं। हे प्रभु! आपका इतना बड़ा पुण्यकर्म क्या कभी बेकार जा सकता है? हे देव! आपको अत्यन्त उत्तम यश मिला हुआ है, क्योंकि आपने मेरी माया जड़ से उखाड़ डाली है। हे स्वामी! आनन्द-सरोवर के प्रस्फुटित कमल-सदृश आपके जो ये नेत्र हैं, वे जिसे अपने प्रसाद का स्थान बनाते हैं, उस जीव के विषय में इस बात की परिकल्पना करना निरा पागलपन ही है उसका मोह के साथ योग होगा-उसे कभी आकर मोह ग्रस सकेगा। भला बड़वानल के सामने मृगजल क्या चीज है? और यदि आप मेरे सम्बन्ध में कहें तो मैं तो इस समय आपके कृपाप्रसाद के प्रत्यक्ष गर्भगृह में प्रवेश करके सानन्द ब्रह्मरस का आस्वादन कर रहा हूँ। यदि इससे मेरा मोह नष्ट हो गया तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है? हे महाराज! आपके चरणों के स्पर्श से आज सचमुच मेरा उद्धार हो गया।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (44-68)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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