ज्ञानेश्वरी पृ. 33

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

अर्जुन ने उस समय इन सब बातों को बताकर श्रीकृष्ण से पूछा-“हे भगवन्! अब तो मेरी ये सब बातें आपकी समझ में आ गयीं न?” किन्तु अर्जुन के अन्तःकरण में इस बात का भी भरोसा नहीं होता था कि श्रीकृष्ण ने मेरी ये सब बातें मनोयोगपूर्वक सुनी हैं। इस बात का विचार होते ही अर्जुन बहुत व्यग्र हुआ और उसने फिर पूछा-“हे प्रभो! इसका क्या कारण है कि आप मेरी बातों पर गौर ही नहीं करते।”[1]

न चैतद्विद्म:कतरन्नो गरीयो।
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिता:प्रमुखे धार्तराष्ट्रा:॥6॥

हे भगवन! मेरे मन में जो-जो बातें थीं, वे सब-की-सब मैंने स्पष्ट रूप से आपसे कह दीं। अब यदि वास्तविक तत्त्व इससे कुछ पृथक् हो तो उसे आप ही जानें। यहाँ युद्ध के निमित्त हमारे समक्ष वे ही लोग उपस्थित हैं जिनके विषय में हमें यदि कहीं से भी यह भनक भी लग जाय कि इनके साथ हमारी शत्रुता है, तो हमें सचमुच में तत्क्षण प्राण छोड़ देने चाहिये। ऐसी दशा में यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि अब ऐसे लोगों का वध करना उचित है? अथवा इनसे युद्ध न करना।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (39-51)
  2. (52-54)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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