ज्ञानेश्वरी पृ. 32

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

गुरुनहत्वा हि महानुभावान्।
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव।
भुज्जीय भोगान्र रुधिर प्रदिग्धान् ॥5॥

अर्जुन ने फिर कहा-“हे देव! समुद्र की गम्भीरता तो बहुत सुनी जाती है, पर उसकी वह गम्भीरता भी देखने मात्र की ही होती है। पर इन गुरु द्रोण के मन की गम्भीरता ऐसी विलक्षण है कि उसमें कभी हलचल होती ही नहीं। निःसन्देह यह आकाश अनन्त है; पर फिर भी इसको मापा जा सकता है, परन्तु इन आचार्य द्रोण के अगाध हृदय के माप का कोई सवाल ही नहीं उठता। किसी समय सुधा का स्वाद भी बिगड़ सकता है या काल के प्रभाव से वज्र के भी टुकड़े-टुकड़े हो सकते हैं; किन्तु द्रोणाचार्य की मनोवृत्ति को कभी विकारयुक्त नहीं किया जा सकता है। प्रेमभाव की चर्चा करते समय उदाहरणस्वरूप माता का नाम मुख्यतः सामने आना ठीक ही है, पर द्रोणाचार्य तो साक्षात् मूर्तिमन्त प्रेम ही हैं। करुणा का प्रादुर्भाव इन्हीं से हुआ है। समस्त गुणों के धाम भी यही हैं। इतना ही नहीं, ये विद्या के असीम सागर ही हैं।”

अर्जुन ने फिर कहा-“ये इतने बड़े हैं फिर भी हम लोगों पर इनकी कृपा है। इस स्थिति में हम लोग कभी इनके वध की कल्पना कर सकते हैं क्या? यदि मेरे प्राण भी चले जायँ तो जायँ, पर यह मैं स्वप्न में भी सोच नहीं सकता कि पहले तो मैं युद्ध में ऐसे लोगों का वध करूँ और तब जा करके राज्यसुख का उपभोग करूँ। यह राज्यसुख ही क्या यदि इन्द्रपद भी मिल जाय तो भी मैं इनका वध नहीं करना चाहता। इससे तो यही अच्छा है कि यहाँ भीख माँगकर जीवन का निर्वाह कर लें। इतना ही नहीं, देश त्याग करके अन्यत्र चले जाना अथवा गिरिकन्दराओं में निवास करना भी श्रेयस्कर है, पर इन पर शस्त्र चलाना कदापि उचित नहीं है। हे देव! जिन बाणों पर अभी नयी धार लगायी गयी है, उन बाणों से इन लोगों के मर्मस्थान पर आघात करना और फिर उनके रक्त से सने हुए सुखभोग को प्राप्त करना, भला ऐसे सुखभोग को लेकर कोई क्या करेगा। रक्त से सना हुआ वह भोग भला क्या सुख देगा! बस, यही कारण है कि यह विचार मुझे भाता ही नहीं। इसलिये आपकी ये बातें मुझे पसन्द नहीं हैं।”

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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