श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
गुरुनहत्वा हि महानुभावान्। अर्जुन ने फिर कहा-“हे देव! समुद्र की गम्भीरता तो बहुत सुनी जाती है, पर उसकी वह गम्भीरता भी देखने मात्र की ही होती है। पर इन गुरु द्रोण के मन की गम्भीरता ऐसी विलक्षण है कि उसमें कभी हलचल होती ही नहीं। निःसन्देह यह आकाश अनन्त है; पर फिर भी इसको मापा जा सकता है, परन्तु इन आचार्य द्रोण के अगाध हृदय के माप का कोई सवाल ही नहीं उठता। किसी समय सुधा का स्वाद भी बिगड़ सकता है या काल के प्रभाव से वज्र के भी टुकड़े-टुकड़े हो सकते हैं; किन्तु द्रोणाचार्य की मनोवृत्ति को कभी विकारयुक्त नहीं किया जा सकता है। प्रेमभाव की चर्चा करते समय उदाहरणस्वरूप माता का नाम मुख्यतः सामने आना ठीक ही है, पर द्रोणाचार्य तो साक्षात् मूर्तिमन्त प्रेम ही हैं। करुणा का प्रादुर्भाव इन्हीं से हुआ है। समस्त गुणों के धाम भी यही हैं। इतना ही नहीं, ये विद्या के असीम सागर ही हैं।” अर्जुन ने फिर कहा-“ये इतने बड़े हैं फिर भी हम लोगों पर इनकी कृपा है। इस स्थिति में हम लोग कभी इनके वध की कल्पना कर सकते हैं क्या? यदि मेरे प्राण भी चले जायँ तो जायँ, पर यह मैं स्वप्न में भी सोच नहीं सकता कि पहले तो मैं युद्ध में ऐसे लोगों का वध करूँ और तब जा करके राज्यसुख का उपभोग करूँ। यह राज्यसुख ही क्या यदि इन्द्रपद भी मिल जाय तो भी मैं इनका वध नहीं करना चाहता। इससे तो यही अच्छा है कि यहाँ भीख माँगकर जीवन का निर्वाह कर लें। इतना ही नहीं, देश त्याग करके अन्यत्र चले जाना अथवा गिरिकन्दराओं में निवास करना भी श्रेयस्कर है, पर इन पर शस्त्र चलाना कदापि उचित नहीं है। हे देव! जिन बाणों पर अभी नयी धार लगायी गयी है, उन बाणों से इन लोगों के मर्मस्थान पर आघात करना और फिर उनके रक्त से सने हुए सुखभोग को प्राप्त करना, भला ऐसे सुखभोग को लेकर कोई क्या करेगा। रक्त से सना हुआ वह भोग भला क्या सुख देगा! बस, यही कारण है कि यह विचार मुझे भाता ही नहीं। इसलिये आपकी ये बातें मुझे पसन्द नहीं हैं।” |
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