श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
यद्यपि मैं स्वयं सिद्ध हूँ, पर फिर भी वे मेरी मूर्ति का निर्माण करते हैं; स्वयम्भू हूँ, पर फिर भी मेरी प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं और मैं नित्य-निरन्तर और सर्वव्यापक हूँ, पर फिर भी वे मेरा आवाहन और विसर्जन करते हैं। यद्यपि मैं सदा स्वयं सिद्ध हूँ परन्तु वे अपनी बुद्धि से मेरे विकारहीन एकरूप के साथ बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था का सम्बन्ध जोड़ लेते हैं। यद्यपि मैं द्वैतहीन हूँ, पर फिर भी वे मुझमें द्वैतभाव का आरोप करते हैं। मुझ अकर्ता को कर्ता और मुझ अभोक्ता को भोगों का उपभोग करने वाला समझते हैं। यद्यपि मेरा कोई कुल नहीं है, पर फिर भी वे मेरे कुल का निरूपण करते हैं। मेरे अविनाशी होने पर भी मेरी मृत्यु की कल्पना करके दुःखी होते हैं और यद्यपि मैं सबके भीतर समान रूप से रहता हूँ, पर फिर भी मेरे विषय में शत्रु और मित्र इत्यादि भावों की सम्भावना करते हैं, यद्यपि मैं आत्मानन्द का साक्षात् भण्डार हूँ, परन्तु फिर भी वे समझते हैं कि मैं भाँति-भाँति के सुखों की लालसा करता हूँ। यद्यपि मैं सर्वत्र समभाव से रहता हूँ, पर फिर भी वे मुझे एकदेशीय समझते हैं और यह मानते हैं कि मैं अमुक स्थल-विभाग में रहता हूँ और यद्यपि मैं समस्त जड़-जंगम की आत्मा हूँ, पर फिर भी वे मेरे विषय में यह कहते हैं कि मैं एक का पक्ष लेता हूँ और दूसरे पर कोप करके उसे मारता हूँ। कहने का अभिप्राय यह है कि इस प्रकार के जो अनेक मनुष्य-धर्म हैं, उन्हीं को वे ‘मैं’ कहने लगते हैं और न उन सबका मुझमें आरोप करते हैं। इस प्रकार उनके ज्ञान का स्वरूप सत्य के एकदम विपरीत होता है। वे जिस समय कोई मूर्ति अपने समक्ष देखते हैं, उस समय उसी को देवता कहने लगते हैं; पर जिस समय वही मूर्ति खण्डित हो जाती है, उस समय यह कहकर उसे फेंक देते हैं कि यह देवता नहीं है। आशय यह है कि वे लोग नाना प्रकार से यही मानते हैं कि मैं साकार मनुष्य ही हूँ। इस प्रकार उनका यह विपरीत ज्ञान ही सच्चे ज्ञान को अँधेरे में रखता है और सच्चा ज्ञान उनकी दृष्टि के समक्ष नहीं आने पाता।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (140-171)
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