ज्ञानेश्वरी पृ. 259

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

इस प्रकार बुद्धि का भ्रमिष्ट निश्चय केवल व्यर्थ ही होता है। जैसे कोई कांजी (माड़) पीये और परिणाम अमृत का देखना चाहता हो, तो ठीक वैसी ही बात यह भी है कि इस विनाशी नाम-रूप वाले स्थूल रूप पर श्रद्धायुक्त चित्त से पूर्ण भरोसा रखा जाय और तब उसी में मेरा अविनाशी रूप देखा जाय। भला इस प्रकार की चेष्टा से मैं कैसे दिखलायी पड़ सकता हूँ? क्या पूर्व दिशा की तरफ जाने वाले रास्ते से चलकर कभी कोई पश्चिमी समुद्र के उस पार वाले तट पर पहुँच सकता है? अथवा हे सुभट! क्या भूसा कूटने से उसमें से कभी अनाज का दाना मिल सकता है? इसी प्रकार जिस स्थूल विश्व का आकार सिर्फ विकार से निर्मित है, उसी को जानकर मेरा केवल, निराकार और निर्गुण स्वरूप भला कैसे जाना जा सकता है? क्या फेन पीने से ही जल पीने का फल हो सकता है? इसी प्रकार मन में मोह उत्पन्न होने के कारण लोग भ्रम से यह कल्पना कर लेते हैं कि यह विश्व मैं परमात्मा ही हूँ और तब यह मान लेते हैं कि यहाँ के जो जन्म और मृत्यु आदि कर्म हैं, वे मुझ पर भी प्रयुक्त होते हैं। इस प्रकार वे लोग मुझ अनाम का नामकरण कर लेते हैं, क्रियाहीन पर कर्म का और विदेह पर देह-धर्म का आरोप कर लेते हैं। वे लोग मुझ निराकार का आकार मान लेते हैं, मुझ उपाधिहीन पर उपचार विधि का आरोप करते हैं, मेरे निष्क्रिय होने पर भी मुझ पर व्यवहार का, वर्णहीन होने पर भी वर्ण का, निर्गुण होने पर भी गुण का, हाथ-पैर न होने पर भी हाथ-पैर का, अपरिमित होने पर भी परिमित का, सर्वव्यापी होने पर भी एकदेशीय होने का आरोप करते हैं। जैसे सुषुप्त व्यक्ति स्वप्नावस्था में अपने बिस्तर पर ही अरण्य देखता है, वैसे ही वे लोग मुझ श्रवणहीन पर श्रवण, नेत्रहीन पर नेत्र, गोत्ररहित पर गोत्र और रूपहीन पर रूप का आरोप करते हैं। यद्यपि मुझमें इच्छा, तृप्ति, वस्त्र, भूषण और कारण इत्यादि कुछ भी नहीं है, पर फिर भी वे मुझमें इन सब चीजों का आरोप करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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