ज्ञानेश्वरी पृ. 26

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकै:।
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ॥43॥
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥44॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता: ॥45॥

हे देव! आप जरा ध्यानपूर्वक सुनें। इसमें एक और भी महापातक होता है। वह यह है कि जब एक कुल पथ भ्रष्ट हो जाता है, तब उसके संगदोष से दूसरे लोग भी पतित हो जाते हैं। जैसे अपने घर में अकस्मात् लगी हुई आग औरों के भी घरों को जलाकर भस्म कर देती है, वैसे ही उस कुल की संगति जिनके साथ होती है, वे सब-के-सब उस कुल के कारण महापापी (दूषित) हो जाते हैं। इस प्रकार अनेक पातकों से युक्त वह कुल केवल नरकगामी ही होता है, उसे नरक की यातना भोगनी पड़ती है।” अर्जुन ने फिर कहा-“जब एक बार वह कुल नरकगामी हो जाता है, तब कल्प के अन्त तक भी वह वहाँ से मुक्त नहीं होता। कुल का घात करने से इसी प्रकार अन्तविहीन अधोगति होती है।

हे देव! आपने मेरी तरह-तरह की बातें कान से सुनीं; पर मैं देखता हूँ कि अभी तक आप पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। क्या आपने अपना हृदय वज्र-सा कठोर बना लिया है? आप फिर ध्यान दें। जिस शरीर के लिये सुख-सम्पत्ति की कामना की जाती है, वह सब कुछ क्षणभंगुर है। तो आप ही बताएँ कि इस प्रकार होने वाले महापातक का हम त्याग क्यों न करें? ये सब अपने पूर्वज एकत्रित हुए हैं, उनको मार डालो इस प्रकार की बुद्धि से उनकी तरफ देखा। क्या मुझसे कोई कम गलती हुई है, आप ही बताइये![1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (257-264)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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