श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:। जब ऐसी दशा उत्पन्न हो जाती है, तब सत् और असत् का विचार करना असम्भव हो जाता है। सब-के-सब मनमाना आचरण करने लगते हैं और तब विधि तथा निषेध नष्ट हो जाते हैं। जैसे हाथ का दीपक खोकर अँधेरे में चलने से समतल भूमि पर भी लड़खड़ाकर गिरना पड़ता है, वैसे ही जब किसी वंश में वंशक्षय होता है तब सनातन धर्म का आचार-विचार नष्ट हो जाता है, फिर ऐसी दशा में पाप के सिवाय दूसरी कौन-सी चीज बची रह सकती है? जब यम और नियम नष्ट हो जाते हैं तब इन्द्रियाँ स्वच्छन्द विचरण करने लगती हैं जिससे कुलांगनाएँ भी व्यभिचारिणी हो जाती हैं। उत्कृष्ट प्रकृति के लोग अधमों में जा मिलते हैं और ब्राह्मण एवं शूद्रादिवर्ण परस्पर मिलकर एकरूप हो जाते हैं, जिससे जाति-धर्म का समूल नाश हो जाता है। जिस प्रकार चौराहे पर रखे हुए बलि पर कौओं के समूह चारों ओर से आकर इकट्ठे हो जाते हैं उसी प्रकार ऐसे कुलों में चारों ओर से महापापों का प्रवेश होने लगता है।[1] संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। इसके बाद उस कुल को भी और कुलघातियों को भी नरक में जाना पड़ता है और भी देखिये, इस तरह से वंश में बढ़ी हुई प्रजा अधोगति को जाती है, तब उस वंश के पितरों को भी स्वर्ग से नीचे गिरना पड़ता है; क्योंकि जहाँ नित्य तथा नैमित्तिक कृत्यों का क्षय हो जाता है, वहाँ किसे किसी को तिलांजलि देने की परवा हो सकती है? फिर ऐसी दशा में पितर लोग क्या करें? स्वर्ग में कैसे ठहरें? इसलिये वे भी असहाय होकर अपने भ्रष्टकुल वालों के पास नरक में पहुँच जाते हैं। जैसे साँप नखाग्र में काटे तो भी उसका विष चोटी तक फैल जाता है, वैसे ही इस महापाप के दोष से ब्रह्मलोक तक पहुँचे हुए पितरों सहित सारा कुल ही डूब जाता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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