ज्ञानेश्वरी पृ. 223

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग


यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागा: ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्‌ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥11॥

जो सर्वोत्तम ज्ञान सब प्रकार के ज्ञानों का अन्त और चरम सीमा है, उसी सर्वोत्तम ज्ञान की खान ज्ञानिजनों की बुद्धि ने जिसे ‘अक्षर’ नाम से पुकारा है और जो प्रचण्ड वायु-वेग से भी कभी उड़ नहीं सकता, वही वास्तविक आकाश है। यदि वास्तविकता यह न हो और वह केवल मेघ ही हो, तो भला वह पवन-वेग के समक्ष कैसे टिक सकता है? इसीलिये ज्ञानिजन कहते हैं कि जिसका ज्ञान सिर्फ ज्ञानी लोगों को ही होता है और जिसकी नाप सिर्फ ज्ञान से ही होती है, परन्तु फिर भी जो स्वभावतः अक्षर है, वह कभी जाना ही नहीं जा सकता। इसीलिये वेदविद् पुरुष जिसे अक्षर कहते हैं और जो प्रकृति से भी परे है, जो परमात्मरूप है और जो विषयों में का विष निकालकर सब इन्द्रियों को निर्मल करके तटस्थ वृत्ति से देहरूपी वृक्ष की छाया में बैठा हुआ है, वह विरक्त पुरुष भी जिसकी सदा बाट जोहता रहता है और निष्काम पुरुषों को भी जिसकी इच्छा होती है, जिसके प्रति होने वाले अनुराग के कारण कुछ लोग ब्रह्मचर्यादि व्रत के संकटों की भी चिन्ता न करके निर्ममतापूर्वक अपनी इन्द्रियों को दुर्बल कर डालते हैं, वह दुर्लभ, अचिन्त्य और अनन्त पद, जिसके तट पर ही वेद डूबते रहते हैं, वही पुरुष प्राप्त करते हैं जो उपर्युक्त प्रकार से अन्त समय में मुझे स्मरण करते हैं। अब, हे पार्थ! मैं फिर एक बार तुम्हें इस स्थिति के विषय में बतलाता हूँ।”

तब अर्जुन ने कहा-“हे स्वामी! मैं तो स्वयं ही आपसे यही प्रार्थना करने वाला ही था, पर इसी बीच में आपने स्वयं ही यह बात मुझे फिर से बतलाने की कृपा की है। अतः हे देव! आप अब वह बात मुझे बतलावें। किन्तु आप जो कुछ मुझे बतलावें, वह अत्यन्त ही सरल और सुगम होना चाहिये।” उस समय त्रिभुवन के दीपक श्रीकृष्ण ने कहा-“अर्जुन, क्या तुम मुझे नहीं पहचानते? मैं संक्षेप में ही इन सब बातों को तुम्हें बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। परन्तु तुम्हें सिर्फ इस बात को चेष्टा करनी चाहिये कि मन की जो बाहर की ओर दौड़ने की आदत है, वह छूट जाय और वह अनवरत हृदयरूपी दह में ही डूबा रहे। बस, फिर सारी बातें स्वतः तुम्हारी समझ में आ जायँगी।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (100-111)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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