ज्ञानेश्वरी पृ. 224

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग


सर्वद्वाराणि संयम्यमनो हृदि निरूध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥12॥

परन्तु यह बात तभी होगी, जब इन्द्रियरूपी दरवाजों को संयम ठीक तरह बन्द कर देगा। उस स्थिति में मन सहज में ही भीतर-ही-भीतर दबकर जम जायगा और वह दबाया हुआ मन हृदय में ही स्थित रहेगा। जैसे लूला-लँगड़ा व्यक्ति अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं जाता, ठीक वैसे ही हे पाण्डव! जब चित्त भी भली-भाँति अन्दर बन्द हो जाय, तब व्यक्ति को प्राणवायु के द्वारा प्रणव (ओंकार) ध्यान करना चाहिये और तब क्रमशः उस प्राणवायु को ब्रह्मरन्ध्र तक ले आना चाहिये। जिस समय प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में ले आते हैं, उस समय धारणा की शक्ति से उसे वहाँ इस प्रकार स्थिर रखने की जरूरत होती है कि वह वहाँ इस तरह से रहे कि ब्रह्माकाश में मिलता हुआ-सा हो। इसके बाद ओंकार की तीन मात्राओं (अ, उ, म) का जब तक अर्धमात्रा में विलय न हो जाय, तब तक प्राणवायु को चिदाकाश में स्थिर करना चाहिये, इससे ऐक्य प्राप्त होते ही वह ओंकार मूल ब्रह्म में भरा हुआ दृष्टिगोचर होता है अर्थात् वह प्राण मूर्ध्नि-आकाश में विलीन होता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (112-116)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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