ज्ञानेश्वरी पृ. 202

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय: ॥17॥

इनमें से जो आर्त लोग हैं, वे अपने दुःखों का निवारण करने के लिये मुझे भजते हैं, जिज्ञासुकोटि के भक्त ज्ञान की अभिलाषा से और अर्थार्थी-लोग अर्थ-सिद्धि के लिये मेरे भक्त होते हैं। किन्तु चौथे कोटि के जो भक्त होते हैं, उनमें कोई ऐसी वासना नहीं होती, जिसकी वे तृप्ति करना चाहते हों और यही कारण है कि वही ज्ञानी लोग मेरे वास्तविक और सच्चे भक्त होते हैं। क्योंकि उसी ज्ञानरूपी प्रकाश से भेद-भावरूपी अन्धकार समाप्त हो जाता है; इसीलिये वे मद्रूप हुए रहते हैं तथा मेरे भक्त भी हो जाते हैं। पर जैसे स्फटिक-शिला उस पर से प्रवाहमान पानी की गति के कारण-सामान्य लोगों की दृष्टि में पलभर के लिये पानी की भाँति प्रतीत होती है, ठीक वैसी ही अवस्था इस प्रकार के ज्ञानी व्यक्ति की भी होती है। यह वर्णन करने का कोई विलक्षण प्रकार नहीं है। जिस समय वायु शान्त होकर आकाश में विलीन हो जाती है, उस समय आकाश से भिन्न उसका कोई वायु-भाव नहीं रह जाता। ठीक इसी प्रकार जिस समय वह ज्ञानी मुझमें मिलकर एकाकार हो जाता है, उस समय ऐसे कथन की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती कि ‘वह भक्त है’। यदि वायु को हिला-डुलाकर देखा जाय तभी उसका आकाश से भिन्न स्वरूप दृष्टिगोचर होता है और तभी इस बात का ज्ञान होता है कि वह आकाश से भिन्न है और नहीं तो वह स्वभावतः आकाश के रूप में ही रहती है। इसी प्रकार जिस समय वह ज्ञानी शरीर के द्वारा कर्मों का आचरण करता है, उस समय लोगों को ऐसा अनुभव होता है कि वह भक्त है। परन्तु वह अपने आत्मानुभव के कारण मद्रूप हुआ रहता है। वह ज्ञानलोक के (ज्ञानरूपी प्रकाश के) कारण यह समझता है कि मैं आत्मा ही हूँ और इसीलिये मैं भी प्रेमावेश में उसे आत्मा ही समझता हूँ। जो जीवत्व के उस पार का आत्मस्वरूप का संकेत पहचान कर व्यवहार कर सकता है, वह क्या केवल देह की भिन्नता के कारण ही कभी परमात्म तत्त्व से अलग हो सकता है?[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (110-118)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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