श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
इसीलिये एकमात्र अपना हित करने के लोभ से जिसे देखो, वही भक्त बनकर मुझे भजने लगता है; पर ऐसा भक्त केवल ज्ञानी ही है, जिसका प्रिय पात्र सिर्फ मैं ही रहता हूँ। इस प्रकार भगवान् ने जो कुछ कहा, वह मिथ्या नहीं था; क्योंकि देखो, दूध की आशा से यह जगत् गौ को डोरी से बाँधकर रखता है; पर उस बन्धन का अंश रस्सी के बिना ही उस गौ के बछड़े को भी किस प्रकार मिल जाता है? बिना बाँधे ही वह बछड़ा बन्धन में पड़ा रहता है, इसका प्रमुख कारण यही है कि तन-मन और प्राण से वह बछड़ा अपनी माँ के साथ ही जुड़ा रहता है तथा माँ के सिवाय अन्य किसी को वह नहीं जानता। उसे देखते ही उसके मुख से यह निकल पड़ता है कि यही मेरी माँ है। इस प्रकार जिस समय वह गौ देखती है कि मेरे बिना यह बछड़ा असहाय और बेसहारा है, उस समय वह गौ भी उस बछड़े पर वैसी ही पक्की प्रीति रखती है। इसीलिये लक्ष्मीपति ने जो कुछ कहा है, वह एकदम ठीक है। अस्तु। भगवान् श्रीकृष्ण ने पुनः कहना शुरू किया-“हे पार्थ! शेष जो और तीन तरह के भक्त मैंने तुम्हें बतलाये हैं, वे भी अपनी-अपनी जगह पर अच्छे ही हैं और मुझे भी वे प्रिय लगते हैं। किन्तु मेरे विषय में ज्ञान हो जाने पर जो फिर पीछे वापस जाना ठीक वैसे ही भूल जाते हैं, जैसे समुद्र के साथ नदी के मिल जाने पर उसका पीछे वापस जाना असम्भव हो जाता है और इसी प्रकार जिनके चित्तरूपी गुहा में उत्पन्न होने वाली अनुभूतिरूपी गंगा मेरे स्वरूपरूपी सागर में आकर समा जाती है, उस भक्त को एकदम मेरा ही स्वरूप जानना चाहिये-यह जानना चाहिये कि वह भक्त नहीं है, स्वयं मैं ही हूँ। अब इस बात का और कहाँ तक विस्तार करूँ? सच्चाई तो यह है कि जो ज्ञानी है, वह मेरा शुद्ध चैतन्य और साक्षात् आत्मा ही है। वास्तव में यह बात तो किसी से कहने लायक ही नहीं है। पर क्या किया जाय! जो बात नहीं कहनी चाहिये थी, वही मैं कह बैठा हूँ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (119-126)
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