श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
परन्तु जिस समय उस पर वज्रासन का दबाव पड़ता है, उस समय वह जाग उठती है, फिर जैसे कोई नक्षत्र टूट पड़ता है या सूर्यासन छूट जाता है या स्वयं तेज के बीज में से कोमल अंकुर निकलता है, वैसे ही यह कुण्डलिनी अपना घेरा त्याग देती है और मानो कौतुक से अँगड़ाई लेती हुई नाभि कन्द पर खड़ी हो जाती है। वह बहुत दिनों की भूखी रहती है, तिस पर वह दबाकर जगायी जाती है; इसलिये वह अपना मुख बड़े आवेश से ऊपर की ओर उठाकर फैलाती है। हे किरीटी! तत्क्षण उसे अपने समक्ष वह अपानवायु प्राप्त हो जाती है जो हृदय-कोश तल में आकर जमी रहती है; और तब वह उस वायु को अपने अधीन कर लेती है। अपने मुख की ज्वाला से वह उसे ऊपर-नीचे और चतुर्दिक् आवेष्टित कर लेती है तथा मांस के निवाले लेने लगती है। जिस-जिस स्थान पर मांस रहता है, उस-उस स्थान पर पहुँचकर वह उसे खाने लगती है और अन्त में वह हृदय के भी एक-दो निवाले ले ही लेती है। फिर वह तलवों तथा हथेलियों की भी खोज-खबर लेती है और तब ऊपर के हिस्से पर भी हाथ लगाती है। इस प्रकार वह शरीर के अंग-प्रत्यंग की तलाशी लिये बिना शान्त नहीं रहती। वह नीचे के हिस्सों को भी क्षमा नहीं करती। और-तो-और वह नाखूनों का भी सत्त्व निचोड़ लेती है और त्वचा को धोकर हड्डी के ढाँचों से जोड़ देती है। वह अस्थियों की नलियों तक का सत्त्व पी लेती है। नसों की जाल तक चट कर डालती है जिससे बाहरी रोमकूप भी बन्द हो जाते हैं। तदनन्तर, वह प्यासी कुण्डलिनी सप्त धातुओं के समुद्र को एक ही घूँट में पी जाती है जिससे शरीर का हर अवयव शुष्क हो जाता है। फिर नासारन्ध्र से बारह अंगुल तक जो हवा निकलती है, उसे भी यह कुण्डलिनी दबोचकर भीतर की ओर खींचने लगती है। ऐसी दशा में अधोवायु ऊर्ध्वगामी होने लगती है और ऊर्ध्ववायु अधोमुखी होने लगती है और इन दोनों के मध्य में केवल बीच वाले चक्र के परदे की ही आड़ रह जाती है। यदि बीच में यह आड़ न हो तो ये दोनों वायु तत्क्षण परस्पर मिल जायँ। परन्तु कुण्डलिनी कुछ व्याकुल होकर इनसे कहती है-‘क्या केवल तुम्हीं दोनों अब तक बची हुई हो? हे पार्थ! इसका मतलब यह है कि यह कुण्डलिनी शरीर में से पृथ्वी-तत्त्व को खाकर भी साफ कर डालती है और जल-तत्त्व का तो नामोनिशान ही मिटा डालती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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