ज्ञानेश्वरी पृ. 163

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थित: ।
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर: ॥14॥

इस प्रकार शरीर के बाहर अभ्यास की छाया दीखती हैं और शरीर के भीतर का वह आधार ही समाप्त हो जाता है, जिसमें मनोवृत्तियाँ रहती हैं। कल्पना बन्द हो जाती है और प्रवृत्ति शान्त हो जाती है। शरीर, भाव तथा मन सहज ही विराम पाते हैं। फिर इस बात की कुछ सुध-बुध ही नहीं रह जाती कि भूख क्या हो गयी और निद्रा कहाँ चली गयी! हे पार्थ! अभी मैंने तुम्हें जो मूलबन्ध के विषय में बतलाया है, उसके द्वारा सम्यक् रूप से बँध जाने के कारण अपानवायु शरीर में पीछे की तरफ पलटती है और दबाव पड़ने के कारण फूलने लगती है। फिर वह कुपित होकर मत्त होती है और उसी बन्द स्थान में गड़गड़ाने लगती है और नाभि प्रदेश में स्थित मणिपुर नामक चक्र को रह-रहकर धक्के देती रहती है। तत्पश्चात् जब यह हलचल शान्त हो जाती है, तब वह देहरूपी गृह की खोज करके बचपन से लेकर आज तक जितना मल अन्दर इकट्ठा रहता है, वह सब देह के बाहर निकाल फेंकती है।

अपानवायु की यह तरंग देह के भीतर तो समा ही नहीं सकती इसलिये वह कोठों में प्रविष्ट कर कफ और पित्त को आश्रय-स्थान से बाहर कर देती है। फिर यह ऊपर उठी हुई अपानवायु रक्त आदि सप्त धातुओं के समुद्र को उलट देती है, मेद के पर्वतों को फोड़कर चूर-चूर कर देती है और हड्डियों के भीतर मिली हुई मज्जा तक को बाहर निकाल फेंकती हैं। वायु-मार्ग की नलिका का खुलासा करती है और समस्त अवयवों को ढीला कर देती है। इस प्रकार अपने इन लक्षणों से यह अपानवायु योग की साधना करने वाले नवसाधकों को भयभीत कर देती है; परन्तु साधकों को भयभीत नहीं होना चाहिये। इसका कारण यह है कि यह अपानवायु कुछ व्याधि उत्पन्न करती है और साथ में ही उसका परिहार भी करती रहती है। शरीर में रहने वाले कफ और पित्त आदि जो जलीय तत्त्व हैं तथा मांस और मज्जा इत्यादि जो पृथ्वी के अंश हैं, वह उन सबको एक में मिला देती है। इसी बीच में, हे धनुर्धर! व्रजासन की उष्णता के कारण कुण्डलिनी नाम की शक्ति जाग्रत् होती है। जैसे नागिन का कुंकुम की तरह लाल बच्चा कुण्डली मारकर सोता है, वैसे ही यह छोटी-सी कुण्डलिनी साढ़े तीन फेरे की कुण्डली मारकर अधोमुख होकर सर्पिणी की भाँति सोयी रहती है। विद्युत् के बने हुए कंकण अथवा अग्नि-ज्वाला की रेखा अथवा सोने के घोंटे हुए पाँसे की भाँति यह कुण्डलिनी नाभि प्रदेश की अत्यन्त छोटी-सी संकुचित जगह में बहुत अच्छी तरह से बँधी हुई पड़ी रहती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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