श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
तब श्रीकृष्ण ने हँसकर कहा-“अच्छा, अब मैं तुम्हारी इच्छा के अनुरूप ही सब कुछ करता हूँ। देखो, किसी व्यक्ति को जब तक सन्तोष की प्राप्ति नहीं होती, तब तक उसके चित्त में यही चिन्ता सताती रहती है कि मुझे कैसे सुख की प्राप्ति होगी। परन्तु जिस समय वह सन्तोष मिल जाता है, उस समय इच्छा की अपूर्णता कहीं शेष नहीं रह जाती। उसी प्रकार सर्वशक्तिमान् सर्वेश्वर भगवान् का अर्जुन सेवक है, इसीलिये वह ब्रह्मस्वरूप हो जायगा, परन्तु अर्जुन के भाग्य की सामर्थ्य से श्रीकृष्ण किस प्रकार फलीभूत हो गये, वह देखो। सहस्रों बार जन्म धारण करने पर इन्द्रादि को भी जिस परमात्मा की शीघ्र प्राप्ति नहीं होती, आज वही परमात्मा अर्जुन के इतने अधीन हो गया है कि उसका वर्णन करना शब्दों के वश की बात नहीं है। अर्जुन ने जो ब्रह्म होने की इच्छा प्रकट की थी उसको श्रीकृष्ण ने अच्छी तरह सुन ली। उस समय श्रीकृष्ण ने सोचा कि इसकी बुद्धि के गर्भ में वैराग्य का जन्म हुआ है; और जैसे गर्भवती स्त्रियों के मन में अनेक प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं, वैसे ही इसके मन में भी ब्रह्मत्व प्राप्त करने की इच्छा हुई है। वैसे तो यह वैराग्यरूपी गर्भ अभी परिपक्वता को प्राप्त नहीं हुआ है; पर फिर भी यह अर्जुनरूपी वृक्ष वैराग्यरूपी वसन्त-ऋतु की बहार के कारण ‘सोऽहम्’ भावरूपी बौर से लद गया है। उस समय श्रीकृष्ण के अन्तःकरण में यह विश्वास होने लगा कि अर्जुन इतना विरक्त हो गया है कि अब इसमें ब्रह्मप्राप्ति का फल लगने में अधिक देन न लगेगा। उन्होंने सोचा कि अब अर्जुन अपने मन में जो भी कार्य करने का विचार करेगा, उसका इसे पहले से ही फल प्राप्त हो जायगा। इसीलिये अब यदि इसे योग के अभ्यास का उपदेश किया जायगा तो वह व्यर्थ नहीं होगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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