ज्ञानेश्वरी पृ. 158

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग

इन्हीं सब बातों को सोच-विचार करके श्रीहरि ने कहा-“हे अर्जुन! अब मै। इस योग के अभ्यास का राजमार्ग तुम्हें बतलाता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो। इस मार्ग में स्थान-स्थान पर प्रवृत्तिरूपी वृक्षों के मूल में निवृत्तिरूपी फलों के गुच्छे (करोड़ों फल) लगे हुए हैं अर्थात् इस मार्ग का आचरण (अनुष्ठान) करने लग जाय तो मोक्षरूपी फल मिलता है, अब भी इसी मार्ग से श्रीशंकर यात्रा करते रहते हैं। अन्य योगीवृन्द प्रारम्भ में कुछ दूसरे ही टेढ़े-मेढ़े मार्गों में भटक चुके हैं, किन्तु अनुभव सिद्ध होने पर उन्होंने भी इसी राजमार्ग को स्वीकार किया है। अज्ञान के अन्यान्य टेढ़े-मेढ़े मार्गों को त्यागकर वे लोग आत्मज्ञान के इसी सुगम मार्ग से अनवरत आगे बढ़ते गये हैं। योगियों के बाद बड़े-बड़े मुनीश्वर भी सदा इसी मार्ग से चलते रहे हैं और साधनावस्था से निकलकर सिद्धत्व को प्राप्त हुए हैं। आत्मज्ञानियों ने भी इसी मार्ग से चलकर श्रेष्ठता प्राप्त की है। जब योग का यह राजमार्ग एक बार दृष्टिगोचर हो जाता है, तब भूख-प्यास बिल्कुल मिट जाती है।

इस मार्ग में रात-दिन की कोई कल्पना ही नहीं रहती। इस मार्ग पर चलते समय जिस-जिस स्थान पर पाँव पड़तें हैं, उस-उस स्थान पर मोक्ष की खान ही प्रत्यक्ष प्रकट होती है, यदि इस यात्रा के बीच में कहीं कोई अवरोध आ पड़े तो फिर स्वर्ग-सुख तो मिलना-ही-मिलना है। हे अर्जुन, (इस मार्ग में) पूर्व दिशा के मार्ग से चलकर पश्चिम दिशा के घर में आना, इस प्रकार है। मन की स्थिरता ही इस मार्ग पर चलना है। हे धनुर्धर! मुझे अब यह कहने की जरूरत नहीं है, इस मार्ग से यात्रा करते हुए हम जिस गाँव में पहुँचते हैं, स्वयं वही गाँव बन जाते हैं। यह बात तो तुम्हें स्वतः अपने अनुभव से पीछे ज्ञात हो जायगी।” तब पार्थ ने पूछा-“हे देव! आपने जो कहा कि ‘पीछे’ सो मैं तो यही जानना चाहता हूँ कि वह ‘पीछे’ कब होगा? मैं इस समय इस उत्कण्ठारूपी सागर में गोता लगा रहा हूँ। क्या आप मुझे इस संकट से उबारेंगे नहीं? अर्जुन की यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-हे पार्थ! तुम्हारी ये सब बातें उतावलेपन से भरी हुई हैं। मैं तो स्वयं ही बतला रहा था; वही तुमने पूछ लिया।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (105-162)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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