श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
ऐसा व्यक्ति अपने अन्तःकरण को जीत लेता है; जिसकी सारी कामनाएँ शान्त हो जाती हैं, उसे कभी यह भान नहीं होता कि परमात्मा मुझसे पृथक् और दूर है। जैसे मैल निकल जाने पर अन्त में विशुद्ध सोना ही शेष रह जाता है, वैसे ही संकल्प-विकल्प का झगड़ा मिटते ही स्वयं जीव ही परमात्मा होता है। जैसे घट के विनष्ट होने पर घटाकाश को आकाश के साथ मिलने के लिये किसी दूसरी जगह जाना नहीं पड़ता, वैसे ही जिसका मिथ्या देहाभिमान बिल्कुल नष्ट हो जाता है, उसे परमात्मरूप होने के लिये फिर और कुछ भी नहीं करना पड़ता; क्योंकि वह तो पहले से ही परमात्मा से भरा रहता है क्योंकि पहले से ही परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है। ऐसे व्यक्ति के लिये शीत और उष्ण के प्रवाह, सुख-दुःख के विचार और मानापमान की बात सम्भव ही नहीं होती। जिन-जिन मार्गों से सूर्य जाता है, उन-उन मार्गों में सब स्थान प्रकाशमय हो जाते हैं, वैसे ही ऐसे व्यक्ति को जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब तद्रूप हो जाता है अर्थात् वह सब उसी का स्वरूप ही है। जैसे मेघ से निकलने वाली जलधारा कभी समुद्र के लिये दुःखदायक नहीं होती, वैसे ही योगीश्वर के लिये अच्छी और बुरी बातें आत्मस्वरूप ही होने के कारण कभी कष्टकारक नहीं होतीं।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (81-87)
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