ज्ञानेश्वरी पृ. 151

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


जितात्मन: प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित: ।
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो: ॥7॥

ऐसा व्यक्ति अपने अन्तःकरण को जीत लेता है; जिसकी सारी कामनाएँ शान्त हो जाती हैं, उसे कभी यह भान नहीं होता कि परमात्मा मुझसे पृथक् और दूर है। जैसे मैल निकल जाने पर अन्त में विशुद्ध सोना ही शेष रह जाता है, वैसे ही संकल्प-विकल्प का झगड़ा मिटते ही स्वयं जीव ही परमात्मा होता है। जैसे घट के विनष्ट होने पर घटाकाश को आकाश के साथ मिलने के लिये किसी दूसरी जगह जाना नहीं पड़ता, वैसे ही जिसका मिथ्या देहाभिमान बिल्कुल नष्ट हो जाता है, उसे परमात्मरूप होने के लिये फिर और कुछ भी नहीं करना पड़ता; क्योंकि वह तो पहले से ही परमात्मा से भरा रहता है क्योंकि पहले से ही परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है। ऐसे व्यक्ति के लिये शीत और उष्ण के प्रवाह, सुख-दुःख के विचार और मानापमान की बात सम्भव ही नहीं होती। जिन-जिन मार्गों से सूर्य जाता है, उन-उन मार्गों में सब स्थान प्रकाशमय हो जाते हैं, वैसे ही ऐसे व्यक्ति को जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब तद्रूप हो जाता है अर्थात् वह सब उसी का स्वरूप ही है। जैसे मेघ से निकलने वाली जलधारा कभी समुद्र के लिये दुःखदायक नहीं होती, वैसे ही योगीश्वर के लिये अच्छी और बुरी बातें आत्मस्वरूप ही होने के कारण कभी कष्टकारक नहीं होतीं।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (81-87)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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