श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
यदि हम विचारपूर्वक अपने अहंकार का परित्याग कर दें और सद्ब्रह्मरूप हो जायँ तो हम बड़ी ही आसानी से स्वतः अपना हित कर लेते हैं और नहीं तो जो व्यक्ति शरीर के सौन्दर्य को भूलकर उसी को ही आत्मा समझ बैठता है, वह व्यक्ति अपने आपको अपने ही कोश में आबद्ध किये हुए रेशम के कीड़े की भाँति स्वयं ही अपना वैरी बन बैठता है। जब लाभ का समय आता है, तब उस भाग्यहीन को स्वयं ही अन्धत्व की अभिलाषा जाग उठती है और जब उसके समक्ष अपार धनराशि रखी हुई रहती है, तब वह आँखें मूँद करके उस धनराशि को लाँघकर आगे बढ़ जाता है अथवा जैसे कोई भ्रम के (पागलपन के) कारण यह कहता फिरे कि “मैं नहीं हूँ”, “मैं खो गया”, “मुझे कोई चुरा ले गया” और इस प्रकार वह अपने अन्तःकरण में मिथ्या हठ किये रहे तो वह बिना कारण ही अपने सिर पर एक आफत मोल ले लेता है। पर यथार्थतः वह जो है सो ही है, किन्तु क्या किया जाय! उसकी बुद्धि उस तरफ जाती ही नहीं, देखो, स्वप्न में लगे हुए तलवार के घाव से क्या कोई सचमुच मरता है? परन्तु ऐसे मनुष्य की स्थिति उसी तोते की तरह होती है जो उस नली पर बैठता है जो स्वयं उसी को पकड़ने के लिये लगायी जाती है। जिस समय वह तोता उस नली पर बैठता है, उस समय उसी तोते के भार से वह नली उल्टी चलने लगती है, उस समय वह होता चाहे तो उड़ जाये पर उसके मन में भय समाया रहता है। वह बेकार में ही अपने गर्दन को ऐंठता रहता है, छाती सिकोड़ता है और चोंच से उस नली को जोर से दबाये रहता है। उसके अन्तःकरण में यह झूठी धारणा हो जाती है कि मैं सचमुच पकड़ा गया हूँ और इस झूठी धारण में वह ऐसा आबद्ध रहता है कि अपने पैरों के खुले हुए पंजों को उस नली में बड़ी ही दृढ़ता से फँसाये रहता है। इस प्रकार जो स्वयं बिना कारण के ही बन्धन में बँधे जो उसके विषय में क्या यह कभी कहा जा सकता है कि उसे किसी दूसरे ने बन्धन में बाँधा है? पर जब एक बार वह ऐसे भ्रम का शिकार हो जाता है, तब वह उसके चक्कर में ऐसा फँस जाता है कि यदि उसे आधा काट भी डाला जाय तो भी वह उस नलिका-यन्त्र को छोड़ता नहीं। इसलिये जो व्यक्ति स्वयं ही अपने संकल्प-विकल्पों का विस्तार करता है, वह स्वयं ही अपना रिपु होता है और जो मनुष्य मिथ्या वस्तु के वशीभूत नहीं होता, वास्तव में वही पक्का आत्मज्ञानी होता है।[1]
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (71-80)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |