ज्ञानेश्वरी पृ. 11

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥10॥

क्षत्रियों के शिरोमणि और जगत् में जो परम प्रतापी भीष्म हैं, उन्हें हमारी सेना का सेनापति होने का गौरव प्राप्त है। इन्हीं पितामह भीष्म के बल का आश्रय पाकर यह सेना एक दुर्ग की भाँति प्रतीत होती है तथा इसकी तुलना में यह त्रिलोकी भी अत्यल्प जान पड़ती है। एक तो समुद्र वैसे ही अलंघ्य है, फिर जैसे उसे बड़वाग्नि का सहयोग प्राप्त हो जाय अथवा जिस प्रकार प्रलयकाल की अग्नि एवं तीव्र वायु का मिलन हो जाय, उसी प्रकार की दशा इन गंगानंदन भीष्म के सेनापति बनने से हो गयी है तो फिर ऐसी सेना का सामना भला कौन कर सकता है? और फिर पाण्डवों की यह सेना हमारी सेना के सामने तो अत्यल्प ही है, पर फिर भी यह मुझे बहुत विशाल जान पड़ती है और इस सेना का सेनापति भी महाबली भीमसेन है।” बस, इतना कहकर दुर्योधन चुप हो गया।[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (115-120)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः