श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः। इसके बाद दुर्योधन ने फिर अपने सब सैनिकों से कहा-“अब तुम लोग अपनी-अपनी सेना को तैयार रखो। जिनकी जो अक्षौहिणी सेना आयी होंगी उन लोगों को वो अक्षौहिणी सेना युद्ध भूमि पर अपने-अपने महारथियों की तरफ अलग-अलग विभाग करके सौंप देनी चाहिये। उन महारथियों को उस अक्षौहिणी सेना को अपनी आज्ञा में रखना चाहिये और भीष्म की आज्ञा का पालन करना चाहिये।” तदन्तर, दुर्योधन द्रोणाचार्य से बोला, आप सबका संचालन करें। इन अकेले भीष्म पितामह की रक्ष करें; इनको मेरे-जैसा मानना चाहिये। इनके कारण ही हम लोगों की सेना सक्षम है (हमारी सेना का सब भार इन्हीं पर है।)[1] तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः। राजा दुर्योधन के ये वचन सुनकर सेनापति पितामह भीष्म को बहुत सन्तोष हुआ और उन्होंने सिंहनाद किया। वह नाद दोनों सेनाओं में अद्भुत प्रकार से गूँजता रहा, उस नाद की प्रतिध्वनि आकाश में न समाती हुई पुनः-पुनः गूँजती रही। वह हमारी सेना के सामने प्रतिध्वनि गूँज रही थी उसी समय वीरवृत्ति के बल से स्फुरित होकर भीष्म ने अपना दिव्य शंख बजाया। वे दोनों नाद (आवाज) सम्मिलित हो गये तब त्रिलोकी के कान बधिर हो गये। उस समय ऐसा प्रतीत होने लगा कि, आकाश फटकर नीचे गिरने लगा हो। तत्क्षण आकाश में आवाज होने लगी, सागर क्षुब्ध हुआ और स्थावर-जंगम जगत् (चैतन्यहीन) बधिर होकर काँपने लगा। इस महाघोष से गिरि-कन्दराएँ तक गूँजने लगीं, सेनाओं में रणभेरी बजने लगी।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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