गीता रहस्य -तिलक पृ. 65

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तीसरा प्रकरण

इसलिये अपनी करनी का उक्त प्रकार से वर्णन कर इन्द्र प्रतर्दन से फिर कहता है कि “जो पूर्ण आत्मज्ञानी है उसे मातृवध, पितृवध, भ्रूणहत्या अथवा स्तेय (चोरी) इत्यादि किसी भी कर्म का दोष नहीं लगता, इस बात को तू भली-भाँति समझ ले और फिर यह भी समझ ले कि आत्मा किसे कहते हैं? ऐसा करने से तेरे सारे संशयों की निवृति हो जायगी।’’ इसके बाद इन्द्र ने प्रतर्दन को आत्मविद्या का उपदेश दिया। सारांश यह है कि “महाजनो येन गतः स पंथाः’’ यह युक्ति यद्यपि सामान्य लोगों के लिये सरल है तो भी सब बातों में इससे निर्वाह नहीं हो सकता; और अंत में महाजनों के आचरण का सच्चा तत्त्व कितना भी गूढ़ हो तो भी आत्मज्ञान में घुस कर विचारवान पुरुषों को उसे ढूंढ़ निकालना ही पड़ता है। ‘न देवचरितं चरेत’- देवताओं के केवल बाहरी चरित्र के अनुसार आचरण नहीं करना चाहिये- इस उपदेश का रहस्य भी यही है।

इसके सिवा, कर्म-अकर्म का निर्णय करने के लिये कुछ लोगों ने एक और सरल युक्ति बतलाई है। उनका कहना है कि कोई भी सद्गुण हो, उसकी अधिकता न होने देने के लिये हमें हमेशा यत्न करते रहना चाहिये; क्योंकि, इस अधिकता से ही अंत में सद्गुण दुर्गुण बन बैठता है। जैसे, दान देना सचमुच सद्गुण है; परन्तु “अति दानाद्धलिर्बद्धः’’- दान की अधिकता होने से ही राजा बलि फांसा गया। प्रसिद्ध यूनानी पंडित अरिस्टाटल ने अपने नीतिशास्त्र के ग्रंथ में कर्म-अकर्म के निर्णय की यही युक्ति बतलाई है और स्पष्टतया दिखलाया है कि प्रत्येक सद्गुण की अधिकता होने पर, दुर्दशा कैसे हो जाती है?कालिदास ने भी रघुवंश में वर्णन किया है कि केवल शूरता व्याघ्र सरीखे श्वापद का कू्र काम है और केवल नीति भी डरपोंकापन है इसलिये, अतिथि राजा तलवार और राजनीति के योग्य मिश्रण से, अपने राज्य का प्रबंध करता था[1]। भर्तृहरि ने भी कुछ गुण-दोषों का वर्णन कर कहा है कि ज्यादा बोलना वाचालता का लक्षण है और कम बोलना घुम्मापन है, यदि ज्यादा खर्च करे तो उड़ाऊ, और कम करे तो कंजूस, आगे बढे़ तो दुःससाहसी और पीछे हटे तो ढीला, अतिशय आग्रह करे तो जिद्दी और न करे तो चंचल, ज्यादा खुशामद करे तो नीच और ऐठ दिखलाये तो घमंडी है।

परन्तु इस प्रकार की स्थूल कसौटी से अंत तक निर्वाह नहीं हो सकता, क्योंकि ‘अति’ किसे कहते है और ‘नियमित’ किसे कहते है- इसका भी कुछ निर्णय होना चाहिये; यह निर्णय कौन किस प्रकार करे? एक को अथवा किसी एक मौके पर, जो बात ‘अति ’ होगी वही दूसरे को, अथवा दूसरे मौके पर, कम हो जायगी। हनुमान का पैदा होते ही, सूर्य को पकड़ने के लिये उड़ान, माना कोई कठिन काम नहीं मालूम पड़ा वा. रामा. 7.35; परन्तु यही बात औरों के लिये कठिन क्या, असंभव ही जान पड़ती है। इसीलिये जब धर्म-अधर्म के विषय में संदेह उत्पन्न हो तब प्रत्येक मनुष्य को ठीक वैसा ही निर्णय करना पड़ता है जैसा श्येन ने राजा शिबि से कहा हैः-

अविरोधातु यो धर्मः सत्यविक्रम । विरोधिषु महीपाल निष्चिय गुरुलाघवम् । न बाधा विदयते यत्र तं धर्मे समुपाचरेत् ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रघु. 17.47

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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