गीता रहस्य -तिलक पृ. 397

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तेरहवां प्रकरण
भक्तिमार्ग।

सर्वधर्मान् परित्‍यज्‍य मामेकं शरणं ब्रज।
अहं त्‍वा सर्वपापभयां मोक्षयिष्‍यामि मा शुच:।।[1][2]

अबतक अध्‍यात्‍मदृष्टि से इन बातों का विचार किया गया कि सर्वभूतात्‍मैक्‍यरूपी निष्‍काम-बुद्धि ही कर्मयोग की और मोक्ष की भी जड़ है, यह शुद्ध-बुद्धि ब्रह्मात्‍मैक्‍य-ज्ञान से प्राप्‍त होती है, और इसी शुद्ध-बुद्धि से प्रत्‍येक मनुष्‍य को अपने जन्‍म भर स्‍वधर्मानुसार प्राप्‍त हुए कर्त्‍तव्‍यों का पालन करना चाहिये। परन्‍तु इतने ही से भगवद्गीता में प्रतिपादित विषय का विवेचन पूरा नहीं होता। यद्यपि इसमें सन्‍देह नहीं, कि ब्रह्मात्‍मैक्‍य–ज्ञान ही केवल सत्‍य और अन्तिम साध्‍य है, तथा ‘’उसके समान इस संसार में दूसरी कोई भी वस्‍तु पवित्र नहीं है’’[3]; तथापि अब तक उसके विषय में जो विचार किया गया है, वह सब बुद्धिगम्‍य है। इसलिये सामान्‍य जनों की शंका है, कि उस विषय को पूरी तरह से समझने के लिये प्रत्‍येक मनुष्‍य की बुद्धि इतनी तीव्र कैसे हो सकती है; और यदि किसी मनुष्‍य की बुद्धि तीव्र न हो, तो क्‍या उसको ब्रह्मात्‍मैक्‍य ज्ञान से हाथ धो बैठना चाहिये?

सच कहा जाय तो यह शंका भी कुछ अनुचित नही देख पड़ती। यदि कोई कहे-‘’जबकि बड़े-बड़े ज्ञानी पुरुष भी विनाशी नाम-रूपात्‍मक माया से आच्‍छादित तुम्‍हारे उस अमृतस्‍वरूपी परब्रह्म का वर्णन करते समय ‘नेति नेति’ कह कर चुप हो जाते हैं, तब हमारे समान साधारण जनों की समझ में वह कैसे आवे? इसलिये हमें कोई ऐसा सरल उपाय या मार्ग बतलाओ जिससे तुम्‍हारा वह गहन ब्रह्मज्ञान हमारी अल्‍प ग्रहण शक्ति से समझ में आ जावे;’’-तो इसमें उसका क्‍या दोष है? गीता और कठोपनिषद[4] में कहा है, कि आश्‍चर्य-चकित हो कर आत्‍मा (ब्रह्म) का वर्णन करने वाले तथा सुननेवाले बहुत हैं, तो भी वह किसी की समझ में नहीं आता। श्रुति ग्रन्‍थों में इस विषय पर एक बोधदायक कथा भी है। उसमें यह वर्णन है, कि जब बाष्‍कलि ने बाहृ से कहा‘ हे महाराज! मुझे कृपा कर बतलाइये कि ब्रह्म किसे कहते हैं’, तब बाहृ कुछ भी नहीं बोले। बाष्‍कलि ने फिर वही प्रश्‍न किया, तो भी बाहृ चुप ही रहे! जब ऐसा ही चार पांच बार हुआ तब बाहृ ने वाष्‍कलि से कहा ‘’अरे! मैं तेरे प्रश्‍नों का उत्‍तर तभी से दे रहा हूँ, परन्‍तु तेरी समझ में नहीं आया- मैं क्‍या करूँ? ब्रह्मस्‍वरूप किसी प्रकार बतलाया नहीं जा सकता; इसलिये शान्‍त रहना अर्थात् चुप रहना ही सच्‍चा ब्रह्म लक्षण है! समझा?‘’[5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘’सब प्रकार के धर्मों को यानी परमेश्‍वर-प्राप्ति के साधनों को छोड़ मेरी ही शरण में आ। तुझे सब पापों से मुक्‍त करूँगा। डर मत। ‘’इस श्‍लोक के अर्थ का विवेचन इस प्रकरण के अन्‍त में किया गया है।
  2. गीता.18. 66।
  3. गी. 4. 38
  4. गी. 2. 29; क. 2. 7
  5. वेसू. शांभा. 3. 2. 17

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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