गीता रहस्य -तिलक पृ. 64

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तीसरा प्रकरण

अच्छा, इस व्यावहारिक धर्म का मूलतत्त्व देखा जाये तो वह भी अंधकार में छिप गया है अर्थात वह साधारण मनुष्यों की समझ में नहीं आ सकता। इसलिये महाजन जिस मार्ग से गये हों वही धर्म का मार्ग है ’’[1]। ठीक है, परन्तु महाजन किस को कहना चाहिये? उसका अर्थ “बड़ा अथवा बहुतसा जनसमूह’’ नहीं हो सकता; क्योंकि जिन साधारण लोगों के मन में धर्म-अधर्म की शंका भी कभी उत्पन्न नहीं होती, उनके बतलाये मार्ग से जाना मानो कठोपनिषद में वर्णित “अन्धेनैव नीयमाना शथान्धाः’’ वाली नीति ही को चरितार्थ करना है। अब यदि महाजन का अर्थ ‘बड़े-बड़े सदाचारी पुरुष’ से लिया जाये और यही अर्थ उक्त श्लोक में अभिप्रेत है- तो, उन महाजनों के आचरण में भी एकता कहाँ है? निष्पाप श्रीरामचंद्र ने, अग्रिद्वारा शुद्ध हो जाने पर भी, अपनी पत्नी का त्याग केवल लोकापवाद के ही लिये किया; और सुग्रीव को अपने पक्ष में मिलाने के लिये, उससे “तुल्यारिमित्र’’- अर्थात जो तेरा शत्रु वही मेरा शत्रु और जो तेरा मित्र वही मेरा मित्र, इस प्रकार संधि करके, बेचारे बालि का बध किया, यद्यपि उसने श्रीरामचंद्र का कुछ अपराध नहीं किया था। परशुराम ने तो पिता की आज्ञा से प्रत्यक्ष अपनी माता का शिरश्छेद कर डाला। यदि पांडवों का आचरण देखा जाये तो पांचो की एक ही स्त्री थी।

स्वर्ग के देवताओं को देखें, तो कोई अहल्या का सतीत्व भ्रष्ट करने वाला है, और कोई ब्रह्म मृगरूप से अपनी ही कन्या की अभिलाष करने के कारण रुद्र के बाण से विद्व हो कर आकाश में पड़ा हुआ है[2]। इन्हीं बातों को मन में लाकर उत्तररामचरित्र नाटक में भवभूति ने लव के मुख से कहलाया है कि “वृद्धास्ते न विचारणीयचरितः’’- इन वृद्धों के कृत्यों का बहुत विचार नहीं करना चाहिये। अंग्रेजी में शैतान का इतिहास लिखने वाले एक ग्रंथकार ने लिखा है कि शैतान के साथियों और देवदूतों के झगडों का हाल देखने से मालूम होता है कि कई बार देवताओं ने ही दैत्यों को कपटजाल में फांस लिया है। इसी प्रकार कौषीतकी ब्राह्मणोपनिषद [3] में इंद्र प्रतर्दन से कहता है कि.“मैंने वृत्र को (यद्यपि वह ब्राहाण था) मार डाला। अरुन्मुख संन्यासियों के टुकड़े टुकड़े करके भेड़ियों को खाने के लिये दिये और अपनी कई प्रतिज्ञाओं को भंग करके प्रह्लाद के नातेदारों और गोत्रजों का तथा पौलोम और कालखंज नामक दैत्यों का वध किया, इससे मेरा एक बाल भी बांका नहीं हुआ-“तस्य में तत्र न लोम च मा मीयते !’’ यदि कोई कहे कि “तुम्हें इन महात्माओं के बुरे कर्मों की और ध्यान देने का कुछ भी कारण नहीं है; जैसा कि तैतिरीयोपनिषद [4] में बतलाया है, उनके जो कर्म अच्छे हों उन्हीं का अनुकरण करो, और सब छोड़ दो। उदाहरणार्थ, परशुराम के समान पिता की आज्ञा का पालन करो, परन्तु माता की हत्या मत करो’’ तो वही पहला प्रश्न फिर भी उठता है कि बुरा कर्म और भला कर्म समझने के लिये साधन है क्या?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महा. वन. 312.115
  2. ऐ.ब्रा.3.33
  3. कौषी 3.1 और ऐ. ब्रा.7.28 देखो
  4. 1.11.2

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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