गीता रहस्य -तिलक पृ. 358

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण
सिद्धावस्‍था और व्‍यवहार।


सर्वेषां य: सुहृन्नित्‍यं सर्वेषां च हिते रत:।
कर्मणा मनसा वाचा स धर्मे वेद जाजले।।[1][2]

ब्रह्मज्ञान हो जाने से जब बुद्धि अत्‍यन्‍त सम और निष्‍काम हो जावे तब फिर मनुष्‍य को और कुछ भी कर्तव्‍य आगे के लिये रह नहीं जाता; और इसी कारण जिस मार्ग का यह मत है कि विरक्‍त बुद्धि से ज्ञानी पुरुष को इस क्षण भंगुर संसार के दु:ख और शुष्‍क व्‍यवहार एकदम छोड़ देना चाहिये, उस मार्ग के पण्‍डित इस बात को नहीं जान सकते कि कर्मयोग अथवा गृहस्‍थाश्रम के बर्ताव का भी कोई एक विचार करने योग्‍य शास्‍त्र है। संन्‍यास लेने से पहले चित्‍त की शुद्धि हो कर ज्ञान-प्राप्ति हो जानी चाहिये, इसीलिये उन्‍हें मंजूर है कि संसार-दुनिया दारी-के काम उस धर्म से ही करना चाहिये कि जिससे चित्त की वृत्ति शुद्ध होवे अर्थात् वह सात्त्विक बने। इसी लिये वे समझते हैं कि संसार में ही सदैव बना रहना पागलपन है, जितनी जल्‍दी हो सके उतनी जल्‍दी प्रत्‍येक मनुष्‍य संन्‍यास ले ले, इस जगत में उसका यही परम कर्तव्‍य है। ऐसा मान लेने से कर्मयोग का स्‍वतंन्‍त्र महत्‍व कुछ भी नहीं रह जाता; और इसी लिये सन्‍यासमार्ग के पंण्डित सांसारिक कर्त्‍तव्‍यों के विषय में कुछ थोड़ा सा प्रासगिंक विचार करके गार्हस्‍थ्‍यधर्म के कर्म-अकर्म के विवेचन का इसकी अपेक्षा और अधिक विचार कभी नहीं करते कि मनु आदि शास्‍त्रकारों के बतलाये हुए चार आश्रमरूपी जीने से चढ़ कर संन्‍यास आश्रम की अन्तिम सीढ़ी पर जल्‍दी पहुँच जाओ।

इसी लिये कलियुग में संन्‍यास मार्ग के पुरस्‍कर्ता श्रीशंकराचार्य ने अपने गीताभाष्‍य में गीता के कर्मप्रधान वचनों की उपेक्षा की है; अथवा उन्हें केवल प्रशंसात्‍मक ( अर्थवाद-प्रधान ) कल्पित किया है; और अन्‍त में गीता का यह फलितार्थ निकाला है कि कर्म-संन्‍यास धर्म ही गीता भर में प्रतिपाद्य है। और यही कारण है कि दूसरे कितने ही टीकाकारों ने अपने अपने सम्‍प्रदाय के अनुसार गीता का यह रहस्‍य वर्णन किया है कि भगवान् ने रणभूमिपर अर्जुन को निवृत्ति प्रधान अर्थात् निरी भक्ति, या पातंजल योग अथवा मोक्षमार्ग का ही उपदेश किया है। इसमें कोई सन्‍देह नहीं कि संन्‍यासमार्ग का अध्‍यात्‍मज्ञान निर्दोष है, और उसके द्वारा प्राप्‍त होने वाली साम्‍यबुद्धि अथवा निष्‍काम अवस्‍था भी गीता को मान्‍य है; तथापि गीता को संन्‍यास मार्ग का यह कर्म-सम्‍बन्‍धी मत ग्राह्य नहीं है कि मोक्ष-प्राप्ति के लिये अन्त में कर्मों को एकदम छोड़ ही बैठना चाहिये। पिछले प्रकण में हमने विस्‍तार सहित गीता का यह विशेष सिद्धान्‍त दिखलाया है कि ब्रह्मज्ञान से प्राप्‍त होने वाले वैराग्‍य अथवा समता से ही ज्ञानी पुरुष को ज्ञान-प्राप्ति हो चुकने पर भी सारे व्‍यवहार करते रहना चाहिये जगत् से ज्ञानयुक्‍त कर्म को निकाल डाले तो दुनिया अन्‍धी हुई जाती है और इससे उसका नाश हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘’ हे जाजले! ( कहना चाहिये कि) उसी ने धर्म को जाना कि जो कर्म से, मन से और वाणी से सबका हित करने में लगा हुआ है और जो सभी का नित्‍य स्‍न्नेही है। ’’
  2. महाभारत, शान्ति. 261. 9।

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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