गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
आठवां प्रकरण
विश्व की रचना और संहार
गुणा गुणेषु जायन्ते तत्रैव निविशन्ति च।[1][2] इस बात का विवेचन हो चुका, कि कापिल सांख्य के अनुसार संसार में जो दो स्वतन्त्र मूलतत्त्व-प्रकृति और पुरुष-हैं उनका स्वरूप क्या है, और जब इन दोनों का संयोग ही निमित्त कारण हो जाता है तब पुरुष के सामने प्रकृति अपने गुणों का जाला कैसे फैलाया करती है, और उस जाले से हम को अपना छुटकारा किस प्रकार कर लेना चाहिये। परन्तु अब तक इस बात का स्पष्टीकरण नहीं किया गया कि, प्रकृति अपने जाले को [3] किस क्रम से पुरुष के सामने फैलाया करती है और उसका लय किस प्रकार हुआ करता है। प्रकृति के इस व्यापार ही को ‘विश्व की रचना और संहार‘ कहते हैं; और इसी विषय का विवेचन प्रस्तुत प्रकरण में किया जायेगा। सांख्य-मत के अनुसार प्रकृति ने इस जगत् या सृष्टि को असंख्य पुरुषों के लाभ के लिये ही निर्माण किया है। ‘दासबोध’ में, श्री समर्थ रामदास स्वामी ने भी, प्रकृति से सारे ब्रह्मांड के निर्माण होने का बहुत अच्छा वर्णन किया है। उसी वर्णन से ‘विश्व की रचना और संहार’ शब्द इस प्रकरण में लिये गये हैं। इसी प्रकार, भगवद्गीता के सातवें और आठवें अध्यायों में, मुख्यतः इसी विषय का प्रतिपादन किया गया है। और, ग्यारहवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से जो यह प्रार्थना की है कि ‘‘भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया’’[4]- भूतों की उत्पत्ति और प्रलय (जो आपने ) विस्तार पूर्वक (बतलाया, उसको) मैंने सुना, अब मुझे अपना विश्वरूप प्रत्यक्ष दिखला कर कृतार्थ कीजिये- उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि, विश्व की रचना और संहार क्षर-अक्षर-विचार ही का एक मुख्य भाग है। 'ज्ञान' वह है जिससे यह बात मालूम हो जाती है कि सृष्टि के अनेक (नाना) व्यक्त पदार्थों में एक ही अव्यक्त मूल द्रव्य है (गी.18.20); और विज्ञान उसे कहते हैं जिससे यह मालुम हो कि एक ही मूलभूत अव्यक्त द्रव्य से भिन्न-भिन्न अनेक पदार्थ किस प्रकार अलग-अलग निर्मित हुए (गी. 13. 30); और इस [5]में न केवल क्षर-अक्षर-विचार ही का समावेश होता है, किन्तु क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान और अध्यात्म विषयों का भी समावेश हो जाता है। भगवद्गीता के मतानुसार प्रकृति अपना खेल करने या सृष्टि का कार्य चलाने के लिये स्वतन्त्र नहीं है, किन्तु उसे यह काम ईश्वर की इच्छा के अनुसार करना पड़ता है[6]। परन्तु पहले यह बतलाया जा चुका है कि, कपिलाचार्य ने प्रकृति को स्वतन्त्र माना है। सांख्यशास्त्र के अनुसार, प्रकृति का संसार आरंभ होने के लिये, ‘पुरुष का संयोग’ ही निमित्त-कारण बस हो जाता है। इस विषय में प्रकृति और किसी की भी अपेक्षा नहीं करती। सांख्यों का यह कथन है कि, ज्योंही पुरुष और प्रकृति का संयोग होता है, ज्योंही उसकी टकसाल जारी हो जाती है; जिस प्रकार बसन्त ऋतु में वृक्षों में नये पत्ते देख पड़ते है और क्रमशः फूल और फल आने लगते हैं [7], उसी प्रकार प्रकृति की मूल साम्यावस्था नष्ट हो जाती है और उसके गुणों का विस्तार होने लगता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ “गुणो से ही गुणों की उत्पत्ति होती है और उन्हीं में उनका लय हो जाता है।“
- ↑ महाभारत, शांति. 305. 23
- ↑ अथवा खेल, संसार या ज्ञानेश्वर महाराज के शब्दों में ‘प्रकृति की टकसाल‘ को
- ↑ गी. 11. 2
- ↑ गी.र. 22
- ↑ गी. 9.10
- ↑ मभा. शां. 231. 73; मनु. 1. 30
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