गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तीसरा प्रकरण
यदि किसी मनुष्य को किसी शास्त्र के जानने की इच्छा पहले ही से न हो तो वह उस शास्त्र के ज्ञान को पाने का अधिकारी नहीं हो सकता। ऐसे अधिकार-रहित मनुष्य को उस शास्त्र की शिक्षा देना मानो चलनी में दूध दुहना ही है। शिष्य को तो उस शिक्षा से कुछ लाभ होता ही नहीं; परन्तु गुरु को भी निरर्थक श्रम करके समय नष्ट करना पड़ता है। जैमिनि और बादरायण के सूत्रों के आरंभ में, इसी कारण से “अथातो धर्म जिज्ञासा" और “अर्थातो ब्रह्माजिज्ञासा" कहा हुआ है। जैसे ब्रह्मोपदेश मुमक्षुओं को और धर्मोपदेश धर्मेच्छुओं को देना चाहिये, वैसे ही कर्म शास्त्रोपदेश उसी मनुष्य को देना चाहिये जिसे यह जानने की इच्छा या जिज्ञासा हो कि संसार में कर्म कैसे करना चाहिये। इसीलिये हमने पहले प्रकरण में ‘अथातो’ कहकर, दूसरे प्रकरण में ‘कर्म जिज्ञासा’ का स्वरूप और कर्म योगशास्त्र का महत्त्व बतलाया है। जब तक पहले ही से इस बात का अनुभव न कर लिया जाय कि अमुक काम में अमुक रुकावट है, तब तक उस अड़चन से छुटकारा पाने की शिक्षा देने वाले शास्त्र का महत्त्व ध्यान में नहीं आता; और महत्त्व को न जानने से केवल रटा हुआ शास्त्र समय पर ध्यान में रहता भी नहीं है। यही कारण है कि जो सद्गुरु हैं वे पहले यह देखते हैं कि शिष्य के मन में जिज्ञासा है या नहीं,और यदि जिज्ञासा न हो तो वे पहले उसी को जागृत करने का प्रयत्न किया करते हैं। गीता में कर्म योगशास्त्र का विवेचन इसी पद्धति से किया गया है। जब अर्जुन के मन में यह शंका आई कि जिस लड़ाई में मेरे हाथ से पितृ वध और गुरु वध होगा जिसमें अपने सब बंधुओं का नाश हो जायेगा उसमें शामिल होना उचित है या अनुचित; और जब भगवान के इस सामान्य युक्तिवाद से भी उसके मन का समाधान नहीं हुआ है कि ‘समय पर किये जाने वाले कर्म का त्याग करना मुर्खता और दुर्बलता का सूचक है, इससे तुमको स्वर्ग तो मिलेगा ही नहीं,उलटी दुष्कीर्ति अवशय होगी; ‘तब श्रीभगवान ने पहले अशोच्यानन्वषोचस्त्यं प्रज्ञावादंश्र भाश से अर्थात जिस बात का शोक नहीं करना चाहिये उसी का तो तू शोक कर रहा है और साथ-साथ ब्रह्मा ज्ञान की भी बड़ी बड़ी बातें छांट रहा है- कहकर अर्जुन का कुछ थोड़ा सा उपहास किया और फिर उसको कर्म के ज्ञान का उपदेश दिया। अर्जुन की शंका कुछ निराधार नहीं थी। गत प्रकरण में हमने यह दिखलाया है कि अच्छे पंडितों को भी कभी कभी “क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये’’ यह प्रश्नचक्कर में डाल देता है। परन्तु कर्म-अकर्म की चिंता में अनेक अड़चनें आती हैं- इसलिये कर्म को छोड़ देना उचित नहीं है; विचारवान पुरुषों को ऐसी युक्ति अर्थात ‘योग’ को स्वीकार करना चाहिये जिससे सांसारिक कर्म का लोप तो होने न पावे और कर्माचारण करने वाला किसी पाप या बंधन में भी न फंसे;- यह कहकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले यही उपदेश दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ “इसीलिये तू योग का आश्रय ले। कर्म करने की जो रीति,चतुराई या कुशलता है उसे योग कहते है।’’ यह ‘योग’ शब्द की व्याख्या अर्थात् लक्षण है। इसके संबंध में अधिक विचार इसी प्रकरण में आगे चल कर किया है।
- ↑ गीता. 2.50
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