गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तीसरा प्रकरण
अर्थात् परस्पर विरूद्व धर्मों का तारतम्य अथवा लघुता और गुरुता देख कर ही, प्रत्येक मौके पर, अपनी बुद्धि के द्वारा, सच्चे धर्म अथवा कर्म का निर्णय करना चाहिये[1]। परन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता कि इतने ही से धर्म-अधर्म के सार-असार का विचार करना ही शंका के समय, धर्म-निर्णय की एक सच्ची कसौटी है। क्योंकि व्यवहार में अनेक बार देखा जाता है अनेक पंडित लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सार- असार का विचार भी भिन्न भिन्न प्रकार से किया करते हैं और एक ही बात की नीतिमता का निर्णय भी भिन्न भिन्न रीति से किया करते हैं। और एक बात ही नीतिमता का वचन में कहा गया है। इसलिये अब हमें यह जानना चाहिये कि धर्म- अधर्म- संशय के इन प्रश्नों का अचूक निर्णय करने के लिये अन्य कोई साधन या उपाय है या नहीं, यदि है तो कौन से हैं? और यदि अनेक उपाय हैं तो उनमें श्रेष्ठ कौन हैं। बस इस बात का निर्णय कर देना ही शास्त्र का काम है। शास्त्र का यही लक्षण भी है कि “अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दशकम्’’ अर्थात अनेक शंकाओं के उत्पन्न होने पर, सब से पहले हो उनका, अथवा आगे होने वाली बातों का भी, यथार्थ ज्ञान करा दे। जब हम इस बात को सोचते हैं कि ज्योतिशास्त्र के सीखने से आगे होने वाले ग्रहणों का भी सब हाल मालूम हो जाता है, तब उक्त लक्षण के “परोक्षार्थस्य दर्षकम्’’ इस दूसरे भाग की सार्थकता अच्छी तरह दिखाई पड़ती है। परन्तु अनेक संशयों का समाधान करने के लिये पहले यह जानना चाहिये कि वे कौन सी शंकाएं हैं। इसीलिये प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथकारों की यह रीति है कि, किसी भी शास्त्र का सिद्धांत पक्ष बतलाने के पहले, उस विषय में जितने पक्ष हो गये हों, उनका विचार करके उनके दोष और उनकी न्यूनताएं दिखलाई जाती हैं। इसी रीति को स्वीकार कर गीता में, कर्म- अकर्म- निर्णय के लिये प्रतिपादन किया हुआ सिद्धांत पक्षीय योग अर्थात युक्ति बतलाने के पहले, इसी काम के लिये जो अन्य युक्तियां पंडित लोग बतलाया करते हैं, उनका भी अब हम विचार करेंगे। यह बात सच है कि ये युक्तियां हमारे यहाँ पहले विशेष प्रचार में नहीं थीं; परन्तु इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी चर्चा इस ग्रंथ में न की जावे। क्योंकि, न केवल तुलना ही के लिये, किंतु गीता के आध्यात्मिक कर्मयोग का महत्त्व ध्यान में आने के लिये भी, इन युक्तियों को- संक्षेप में भी क्यों न हो- जान लेना अत्यंत आवश्यक है। गी. र. 10 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महा. वन. 131.11, 12 और मनु.9.299 देखो
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज