गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 327

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 3
कर्म-योग
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(20)
कर्मणैव हि संसिद्धिम्
आस्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि
संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।

(20)
प्राप्त संसिद्ध[1] कर्म द्वारा ही
कर चुके जनकादिक[2]पहले ही।
रख ध्यान में लोकसंग्रह[4]ही
तुझे उचित है करना कर्म ही।।

लोक-संग्रह-

लोक-संग्रह का अर्थ है देवलोक, पितृलोक, सत्यलोक, मनुष्यलोक आदि समस्त लोकों का सामूहिक रूप से पालन व नियमन होना। अध्याय 3 श्लोक 11 में जो “परस्परं भावयन्तः” वाला अन्योन्य-तुष्टि का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है वह लोक-संग्रहात्मक सिद्धान्त है। सृष्टि का पालन-पोषण व नियमन करके लोक-संग्रह को कायम रखने का जो अधिकार या कर्तव्य प्रकृति या ईश्वर को है वही अधिकार या कर्तव्य लोक-संग्रह करने का ज्ञानी पुरुष को होता है। ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान द्वारा विश्व में व समाज में प्रमाणित सिद्धान्त निरूपित व प्रचलित करके समाज व जनसमुदाय को संगठित रखने का प्रयास सदैव करता रहता है। यह आगे श्लोक 21 में कहा है।

चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था ईश्वर द्वारा लोक-संग्रहार्थ ही स्थापित की गई है ताकि उसकी सृष्टि का धारण-पोषण ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्यशूद्र चारों वर्णों द्वारा अपनी-अपनी कार्य-कुशलता द्वारा सुचारू रूप से होता रहे और प्रत्येक समाज सुगठित व संगठित रहकर एक-दूसरे का श्रेय व हित करके अव्यवस्था न होने दे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परमसिद्धि।
  2. मनु, इक्ष्वाकु, जेगिषव्य, कपिलमुनि के शिष्य आसुरि ऋषि, आसुरि के शिष्य महर्षि पंचशिख आदि सभी राजर्षि व महर्षि कर्म-योगी थे। मिथिला देश के सुविश्रुत राजा जनक को अनासक्त कर्म-योग की शिक्षा महात्मा पंचशिख ने ही दी थी। महर्षि व्यास के पुत्र शुक-मुनि को अनासक्त राजा जनक ने ही बताया था।

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3. कर्म-योग 284
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5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
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8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
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16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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