गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
कर्म-योग
(20) लोक-संग्रह-लोक-संग्रह का अर्थ है देवलोक, पितृलोक, सत्यलोक, मनुष्यलोक आदि समस्त लोकों का सामूहिक रूप से पालन व नियमन होना। अध्याय 3 श्लोक 11 में जो “परस्परं भावयन्तः” वाला अन्योन्य-तुष्टि का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है वह लोक-संग्रहात्मक सिद्धान्त है। सृष्टि का पालन-पोषण व नियमन करके लोक-संग्रह को कायम रखने का जो अधिकार या कर्तव्य प्रकृति या ईश्वर को है वही अधिकार या कर्तव्य लोक-संग्रह करने का ज्ञानी पुरुष को होता है। ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान द्वारा विश्व में व समाज में प्रमाणित सिद्धान्त निरूपित व प्रचलित करके समाज व जनसमुदाय को संगठित रखने का प्रयास सदैव करता रहता है। यह आगे श्लोक 21 में कहा है। चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था ईश्वर द्वारा लोक-संग्रहार्थ ही स्थापित की गई है ताकि उसकी सृष्टि का धारण-पोषण ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य व शूद्र चारों वर्णों द्वारा अपनी-अपनी कार्य-कुशलता द्वारा सुचारू रूप से होता रहे और प्रत्येक समाज सुगठित व संगठित रहकर एक-दूसरे का श्रेय व हित करके अव्यवस्था न होने दे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ परमसिद्धि।
- ↑ मनु, इक्ष्वाकु, जेगिषव्य, कपिलमुनि के शिष्य आसुरि ऋषि, आसुरि के शिष्य महर्षि पंचशिख आदि सभी राजर्षि व महर्षि कर्म-योगी थे। मिथिला देश के सुविश्रुत राजा जनक को अनासक्त कर्म-योग की शिक्षा महात्मा पंचशिख ने ही दी थी। महर्षि व्यास के पुत्र शुक-मुनि को अनासक्त राजा जनक ने ही बताया था।
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