गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 173

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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(1) पहला कारण यह है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस स्थान पर जिस आशय व मन्तव्य से कश्मल शब्द का प्रयोग किया है उसका अर्थ यदि “मोह होना” किया जाता है तो वह आशय भंग हो जाता है अर्थ में शिथिलता आती है। यदि देखा जाए तो समस्त गीतोपदेश की आधार शिला ही “कश्मल” शब्द है।

(2) दूसरे “कश्मल” का अर्थ गीता में ही स्पष्ट कर दिया गया है अतः मूल से विपरीत अर्थ लगाना अनर्थ है। इसी श्लोक के दूसरे चरण में “अनार्य जुष्टम” वाक्य का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ इस प्रकार होता है कि- “हे अर्जुन! जो कश्मल तुझे युद्ध की इस विषम बेला में हुआ है वह तेरे जैसे दैवीसम्पदाभिजात आर्य को नहीं होना चाहिए इस प्रकार का कश्मल विषम समय में अनार्य को ही हुआ करता है।” इसके पश्चात् श्लोक 3 में “क्लैव्यं मा स्म गमः” ऐसा उपदेश दिया है और क्लीवता को “क्षुद्र हृदय दौर्बल्यं” बताया है अतः क्लीवता और क्षुद्र-हृदय दौर्बल्य पर्याववाची है। कश्मल के कारण क्लीवता व हृदय की दुर्बलता सम्भव है अतः इन तीनों शब्दों व वाक्यों का प्रयोग कार्य कारण रूप में किया गया है और यह एक दूसरे के पर्यायवाची तथा समानार्थक हैं।

(3) तीसरे यदि कश्मल का अर्थ केवल “मोह” होना ही मान लिया जावे तो मोह के कारण क्लीवता (कायरपन का बुजदिली) या हृदय दौर्बल्य होना सम्भव हो सकता है किन्तु “मोह” के लिए यह नहीं कहा जा सकता कि यह भाव “अनार्यजुष्ट” ही होता है आर्य-जुष्ट नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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