विषय सूची
गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
सांख्य-योग
आर्य व अनार्यआर्य किसे कहते हैं- आर्य की परिभाषा इस प्रकार की गई है- “कर्तव्यमाचरन् कार्यम् कर्तव्यमनाचरन् तिष्ठति प्रकृताचारे स वा आर्य स्मृतः।” तथा-“वृत्तेन ही भवत्यार्यों न धनेन न च विद्यया।” (आपटे कोष) इस परिभाषा के अनुसार जो व्यक्ति अपना कर्तव्य-कर्म, धर्म-पालन, शास्त्र-विधान व नीति का पालन व अनुसरण करके करता है वह “आर्य” कहलाता है केवल धनवान, बुद्धिवान या विद्वान होने से ही आर्य नहीं कहलाता अपितु गुण, स्वभाव, आचरण, वृत्ति भावना आदि सात्त्विक होनी चाहिए। जो सत् पुरुष होता है वही आर्य कहलाने योग्य है। सात्त्विक स्वभाव व गुण वाले आर्य सत्-पुरुष का वर्णन अध्याय 14 श्लोक 22 से 25 में, दैवीसम्पदाभिजात के गुण व लक्षणों के द्वारा, सात्त्विक बुद्धि, सात्त्विक धृति तथा सात्त्विक कर्म करने वाले का, अध्याय 16 श्लोक 1 से 3 में, तथा अध्याय 18 श्लोक, 20, 23, 23, 30 व 33 में वर्णन किया गया है।
अनार्य की चित्त-वृत्ति स्थिर नहीं होती, बुद्धि व्यवस्थित नहीं होती, नीति तथा नैतिकता का विचार नहीं करता, शास्त्र विधान का अनुपालन नहीं करता, धृतिशील नहीं होता, भावुक तथा स्वेच्छाचारी होता है, इच्छा, वासना, कामना, तृष्णा, राग-द्वेष, काम, क्रोध, मद, मोह आदि विकारों से अभिभूत रहता है तथा रज-तम-गुणमय आसुरी वृत्ति का होता है। रजोगुण व तमोगुणात्मक अनार्य की बुद्धि ज्ञान, धृति, स्वभाव व कर्मों का वर्णन अध्याय 16 के श्लोक 4 में व 7 से 18 में और अध्याय 18 के श्लोक 31, 32, 34 व 35 में किया गया है। युद्ध-निर्वेद (कश्मल)मूल में “कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमें समुपस्थितम्” ऐसा वाक्य है। इसमें “कश्मल” का अर्थ, प्रस्तुत अनुवाद में “युद्ध-निर्वेद” किया गया है। गीता की अन्य टीकाओं में कश्मल का अर्थ “मोह” किया गया है कश्मल का अर्थ “युद्ध-निर्वेद” अर्थात् युद्ध से ग्लानि, अरुचि, घृणा, विरक्ति या विमनस्कता किया है इसके निम्नलिखित कारण हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज