गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
कर्म-योग मार्ग, सृष्टि-रचना के सत्कार्यवाद, जन्म-मरण व पुनर्जन्म के वैदिक व पौराणिक सिद्धान्त को सरल व सुबोध बनाने के बजाय बुद्ध ने यह कहकर कि “पुनर्जन्म अहंकार का होता है” क्लिष्ट और दुर्बोध बना दिया। सांख्य-शास्त्र के सृष्टि रचना के “सत्कार्य-वाद” में बुद्धि को प्रथम महान तत्त्व या गुण माना है, बुद्धि के पश्चात् उत्पन्न होने वाला दूसरा तत्त्व या गुण “अहंकार” को बताया गया है। यह अहंकार तत्त्व दो प्रकार का होता है, एक सात्त्विक और दूसरा तामस; सात्त्विक अहंकार से व्यक्त तथा सूक्ष्म 11 इन्द्रियों का [1]तथा तामस-अहंकार से 5 सूक्ष्म तन्मात्राओं[2]का, 5 स्थूल महाभूत [3] आदि निरिन्द्रिय सृष्टि का विकास होना कहा गया है। वेद, उपनिषद् तथा गीता में जीवात्मा को ईश्वर की “परा प्रकृति” अर्थात श्रेष्ठ स्वरूप कहा है और प्रकृति को “अपरा” अर्थात कनिष्ठ रूप कहा है।[4]सांख्य का “पुरुष” वेदान्त या गीता का जीवात्मा है, और सांख्य की मूल प्रकृति वेदान्त व गीता में ईश्वर का अपर स्वरूप अर्थात माया रूप है। ईश्वर की माया रूपा प्रकृति ईश्वर की अध्यक्षताधीन चराचर सृष्टि की रचना करती है [5] प्रकृति गुणों द्वारा ही कर्म क्रियमाण होते हैं [6] तथा सृष्टि रचना का कार्य-कारण रूप जो कर्तव्य है, उसका क्रियमाण हेतु भी प्रकृति ही होती है [7] आत्मा या पुरुष जो अजर-अमर नित्य व अविनाशी है, वह शरीर में साक्षी, उपद्रष्टा के रूप में तटस्थ रहता है [8] इस सन्दर्भ में अध्याय 13 में वर्णित क्षेत्र [9]की तथा क्षेत्रज्ञ[10] की परिभाषा भी देख लेनी चाहिये, जिससे ज्ञात होगा कि शरीर का निर्माण कैसे और किन-किन तत्त्वों से होता है तथा क्षेत्र [11] और क्षेत्रज्ञ[12] का परस्पर क्या सम्बन्ध है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्थात 5 ज्ञानेन्द्रियों का, 5 कर्मेन्द्रियों का और एक मन का
- ↑ शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध
- ↑ आकाश, वायु, तेज, अग्नि, जल और पृथ्वी
- ↑ गीता अध्याय 7 श्लोक 4 व 5
- ↑ गीता अध्याय 9 श्लोक 10
- ↑ अध्याय 3 श्लोक 27
- ↑ अध्याय 13 श्लोक 20
- ↑ अध्याय 13 श्लोक 10 से 23
- ↑ शरीर
- ↑ ज्ञेय
- ↑ शरीर
- ↑ आत्मा या परमात्मा
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