गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1087

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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इसी प्रकार[1] जिस व्यक्ति में या वर्ग में धीरता, वीरता, दक्षता, तेजस्विता, दान-शीलता, प्रजा-पालन व शासन करने की ईश-भावना तथा युद्ध से मुँह न मोड़ने के गुण व लक्षण तथा स्वभाव होता है वह क्षत्रिय वर्ग के अन्तर्गत आता है। युद्ध करना, प्रजा का पालन करना और ईश भावना का नैसर्गिक रूप में होना क्षत्रिय का प्रकृति-जन्य स्वाभाविक कर्तव्य-कर्म कहा गया है। स्वधर्म-रूप में मृत्यु होने पर स्वर्ग मिलता है तथा अपने स्वधर्म से विमुख होना क्षात्र-धर्म के प्रतिकूल होता है और शास्त्र-विधान के अनुसार कर्म न करने से तथा विधानाज्ञा को न मानकर उसका उलंघन करने से मनुष्य पाप का भागी व अपयश का पात्र होता है।

यह वर्णन[2] में है। भगवान कृष्ण के समझाने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति-जन्य-गुणों के अनुसार स्वाभाविक कर्म करने से लोक-संग्रह, राष्ट्र-संग्रह, समाज-संग्रह तथा धर्म-संग्रह आदि लोक-हितकर कार्य सुचारु रूप से चलते रहते हैं यदि इस प्रकार अपना स्वधर्म रूप कर्तव्य-कर्म करने में अथवा करते रहने में मृत्यु भी हो जावे तो वह मृत्यु भी श्रेयस्कर होती है किन्तु कर्म-योग-मार्ग के अनुसार यह स्वाभाविक- कर्तव्य-पालन आसक्ति-विरहित, फलेच्छा-रहित, निःसंग व निष्काम बुद्धि द्वारा लोक-संग्रह भावना से ही किया जाना चाहिए और अन्य वर्ण के कर्मों के मुकाबले में यदि स्वधर्म अहित-कर भी हो तो उसको छोड़कर प्रकृति-जन्य-गुण व स्वभाव से प्रतिकूल पड़ने वाले अन्य वर्ण के कर्मों को ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि अपने स्वकीय गुण व स्वभाव के विरुद्ध तथा प्रतिकूल आचरण करना लोक-संग्रह, राष्ट्र-संग्रह, समाज-संग्रह तथा धर्म सग्रह के हित में अहितकर होता है।[3]

अतः प्रकृति-जन्य-स्वभाव के विरुद्ध हठात लोभ, मोह के कारण अथवा किसी भी काम्य-बुद्धि कि कारण मनुष्य को कर्म नहीं करना चाहिए और यदि मोह के वश होकर वह अपना स्वाभाविक कर्म करना नहीं भी चाहेगा तो भी उसको प्रकृति-गुणों से विवश होकर स्वाभाविक कर्म करना ही पडेगा[4]

श्लोक 44 - जिस व्यक्ति या जन-समुदाय की प्रकृति-जन्य-स्वाभाविक-वृत्ति कृषि करने में, गौ-पालन में, तथा वाणिज्य करने में हो उसे वैश्य-वर्ग में रक्खा गया है; और जिन लोगों का प्रकृति-जन्य-स्वभाव परिचर्यात्मक अर्थात सेवा करने का होता है उनको शूद्र वर्ग में रक्खा गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्लोक 43
  2. अध्याय 2 श्लोक 33-37
  3. अध्याय 3 श्लोक 35; अध्याय 18 श्लोक 47 व 48
  4. अध्याय 3 श्लोक 5 व 8 व अध्याय 18 श्लोक 59, 60

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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