गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
इसी प्रकार[1] जिस व्यक्ति में या वर्ग में धीरता, वीरता, दक्षता, तेजस्विता, दान-शीलता, प्रजा-पालन व शासन करने की ईश-भावना तथा युद्ध से मुँह न मोड़ने के गुण व लक्षण तथा स्वभाव होता है वह क्षत्रिय वर्ग के अन्तर्गत आता है। युद्ध करना, प्रजा का पालन करना और ईश भावना का नैसर्गिक रूप में होना क्षत्रिय का प्रकृति-जन्य स्वाभाविक कर्तव्य-कर्म कहा गया है। स्वधर्म-रूप में मृत्यु होने पर स्वर्ग मिलता है तथा अपने स्वधर्म से विमुख होना क्षात्र-धर्म के प्रतिकूल होता है और शास्त्र-विधान के अनुसार कर्म न करने से तथा विधानाज्ञा को न मानकर उसका उलंघन करने से मनुष्य पाप का भागी व अपयश का पात्र होता है। यह वर्णन[2] में है। भगवान कृष्ण के समझाने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति-जन्य-गुणों के अनुसार स्वाभाविक कर्म करने से लोक-संग्रह, राष्ट्र-संग्रह, समाज-संग्रह तथा धर्म-संग्रह आदि लोक-हितकर कार्य सुचारु रूप से चलते रहते हैं यदि इस प्रकार अपना स्वधर्म रूप कर्तव्य-कर्म करने में अथवा करते रहने में मृत्यु भी हो जावे तो वह मृत्यु भी श्रेयस्कर होती है किन्तु कर्म-योग-मार्ग के अनुसार यह स्वाभाविक- कर्तव्य-पालन आसक्ति-विरहित, फलेच्छा-रहित, निःसंग व निष्काम बुद्धि द्वारा लोक-संग्रह भावना से ही किया जाना चाहिए और अन्य वर्ण के कर्मों के मुकाबले में यदि स्वधर्म अहित-कर भी हो तो उसको छोड़कर प्रकृति-जन्य-गुण व स्वभाव से प्रतिकूल पड़ने वाले अन्य वर्ण के कर्मों को ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि अपने स्वकीय गुण व स्वभाव के विरुद्ध तथा प्रतिकूल आचरण करना लोक-संग्रह, राष्ट्र-संग्रह, समाज-संग्रह तथा धर्म सग्रह के हित में अहितकर होता है।[3] अतः प्रकृति-जन्य-स्वभाव के विरुद्ध हठात लोभ, मोह के कारण अथवा किसी भी काम्य-बुद्धि कि कारण मनुष्य को कर्म नहीं करना चाहिए और यदि मोह के वश होकर वह अपना स्वाभाविक कर्म करना नहीं भी चाहेगा तो भी उसको प्रकृति-गुणों से विवश होकर स्वाभाविक कर्म करना ही पडेगा[4]। श्लोक 44 - जिस व्यक्ति या जन-समुदाय की प्रकृति-जन्य-स्वाभाविक-वृत्ति कृषि करने में, गौ-पालन में, तथा वाणिज्य करने में हो उसे वैश्य-वर्ग में रक्खा गया है; और जिन लोगों का प्रकृति-जन्य-स्वभाव परिचर्यात्मक अर्थात सेवा करने का होता है उनको शूद्र वर्ग में रक्खा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 43
- ↑ अध्याय 2 श्लोक 33-37
- ↑ अध्याय 3 श्लोक 35; अध्याय 18 श्लोक 47 व 48
- ↑ अध्याय 3 श्लोक 5 व 8 व अध्याय 18 श्लोक 59, 60
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