गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
चतुर्वर्ण व्यवस्था में (श्लोक 41) मानव जाति को ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में विभक्त किया गया है और यह विभाजन प्रकृति-जन्य गुण व स्वभाव को देखकर किया गया है और गुण व स्वभाव के अनुसार ही प्रत्येक वर्ण का कर्तव्य-कर्म भी निर्धारित किया गया है; जिनको शास्त्र-बद्ध किया जाकर शास्त्रों द्वारा प्रमाण स्वरूप् माना गया है। यदि शास्त्रों और पुराणों को प्रमाणित माना जावे तो मैत्रेय ऋषि के कथन “अर्वाक्सत्रोतस्तु नवमः क्षत्तरेकविधो नृपाम्” के अनुसार मानव सृष्टि ब्रह्मा की नवीं सृष्टि है और यह एक ही प्रकार की है। यह मानव सृष्टि रजोगुण प्रधान, कर्म-परायण और दुःख रूप विषयों में ही सुख मानने वाली होती है। (श्रीमद्भागवत तृतीय स्कन्ध अ. 10/25) अतः रजोगुण प्रधान तथा कर्म-परायण और सुख-दुःखादि विषयों में ही सुखी रहने वाली इस मूल भूत एक ही सृष्टि का विभाजन गुण-कर्म भेद के अनुसार है। श्लोक 40 से 44 में गुण-कर्म-विभाग का वर्णन कर यहीं समझाया है कि यद्यपि मानव सृष्टि एक ही प्रकार की है किन्तु रजोगुण प्रधान व कर्म-परायण होने के कारण इसके गुण-स्वभाव व कर्मों को देखकर इसके स्रष्टा द्वारा ही इसको चार भागों में विभक्त कर दिया गया है। इन चार भागों के गुण, स्वभाव व कर्मों का वर्णन कर इन श्लोकों में यही समझाया गया है कि जिन लोगों में यह गुण, स्वभाव या कर्म दृष्टिगत हों उनको उसी श्रेणी या वर्ण में समझना चाहिए। (श्लोक 42) में शम, दम, पवित्रता, तथा तप करना, शान्ति, स्वभाव की सरलता, ज्ञान, विज्ञान, विविध-ज्ञान व अध्यात्म-ज्ञान का परिशीलन करना, आस्तिक भावना आदि गुण व लक्षण वाला व्यक्ति ब्राह्मण वर्ग के अन्तर्गत आता है। यह गुण व लक्षण सात्त्विक तथा दैवी संपदाभिजात व्यक्ति के होते हैं (अ. 16 श्लो. 1 से 3) अतः इन उपरोक्त स्वभाव, लक्षण व गुणों से गुणान्वित व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण की श्रेणी में आता है। (देखो अध्याय 4 श्लोक 13 व भावार्थ) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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