गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1076

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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आत्मनिष्ठ तथा अन्तर्मुखी बुद्धि इन्द्रिय-निग्रह द्वारा बुद्धि को त्रिगुणात्मक प्रकृति के रज-तम गुणों से गुणातीत करने से होती है; और गुणातीत करने का साधन व उपाय पातंजल-योग बतामा गया है जिसे मानसिक तप कहा है।[1]

इस प्रकार जब बुद्धि आत्मनि, आत्मरत तथा आत्मतुष्ट हो जाती है तो दुःख पैदा करने वाले कारण, हेतु व प्रयोजन राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह, तृष्णा, इच्छा, स्पृहा आदि भावों का तथा संवेदनाओं का शमन हो जाता है[2]और ऐसा विधेयात्म व्यक्ति सदैव प्रसादित चित्त रहता है[3] तथा निस्पृह, निरहंकार, ममता-रहित व सर्व-काम-त्यागी होकर ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त कर परम शान्ति प्राप्त करता है।[4] यही आध्यात्मिक-सुख होता है जिसे[5] सात्त्विक सुख कहा गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्याय 4 श्लोक 24-31; अध्याय 6 श्लोक 10-28; - अध्याय 17 श्लोक 16)
  2. अध्याय 13 श्लोक 17, 18
  3. अध्याय 2 श्लोक 64, 65)
  4. अध्याय 2 श्लोक 71, 72; - अध्याय 4 श्लोक 39; - अध्याय 5 श्लोक 13, 21 व 23; अध्याय 6 श्लोक 22, 27 व 28
  5. श्लोक 37 में

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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