गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
मोक्ष-संन्यास-योग
आत्मनिष्ठ तथा अन्तर्मुखी बुद्धि इन्द्रिय-निग्रह द्वारा बुद्धि को त्रिगुणात्मक प्रकृति के रज-तम गुणों से गुणातीत करने से होती है; और गुणातीत करने का साधन व उपाय पातंजल-योग बतामा गया है जिसे मानसिक तप कहा है।[1] इस प्रकार जब बुद्धि आत्मनि, आत्मरत तथा आत्मतुष्ट हो जाती है तो दुःख पैदा करने वाले कारण, हेतु व प्रयोजन राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह, तृष्णा, इच्छा, स्पृहा आदि भावों का तथा संवेदनाओं का शमन हो जाता है[2]और ऐसा विधेयात्म व्यक्ति सदैव प्रसादित चित्त रहता है[3] तथा निस्पृह, निरहंकार, ममता-रहित व सर्व-काम-त्यागी होकर ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त कर परम शान्ति प्राप्त करता है।[4] यही आध्यात्मिक-सुख होता है जिसे[5] सात्त्विक सुख कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 4 श्लोक 24-31; अध्याय 6 श्लोक 10-28; - अध्याय 17 श्लोक 16)
- ↑ अध्याय 13 श्लोक 17, 18
- ↑ अध्याय 2 श्लोक 64, 65)
- ↑ अध्याय 2 श्लोक 71, 72; - अध्याय 4 श्लोक 39; - अध्याय 5 श्लोक 13, 21 व 23; अध्याय 6 श्लोक 22, 27 व 28
- ↑ श्लोक 37 में
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