गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
आध्यात्मिक सुखः- क्षणिक अनित्य व अपायी शारीरिक तथा सांसारिक आधिभौतिक सुख से निवृत्ति पाकर ऐसे सुख की प्राप्ति करनी चाहिए जो नित्य, स्थायी तथा बुद्धि-ग्राह्य हो और इन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयों से परे हो। जब तक तृष्णात्मक और वासनात्मक वृत्तियों का समूल नाश न कर दिया जावे तब तक नित्य-सुख, परम-सुख, अत्यानन्द, अक्षय्यानन्द तथा परमावधि सुख का मिलना सम्भव नहीं होता।[1] दुःख का कारण अहंकृत-भाव व असन्तोष होता है; “अतः गुणागुणेतु वर्तन्ते” तथा “गुण-परिणाम-वाद” को जान लेने के पश्चात मनुष्य को यह ज्ञान हो जाता है कि सृष्टि के समस्त कार्य प्रकृति गुण-धर्मानुसार क्रियमाण होते हैं मनुष्य केवल अकर्त्ता प्रकृत्यानुगामी होता है[2]; यह ज्ञान व बोध हो जाने पर असन्तोष-जात कोई भी दुःख नहीं होता और वह व्यक्ति सुखी व प्रसादित चित्त रहता है।[3] असन्तोष-भाव नष्ट हो जाने पर मनुष्य सन्तोषी, सहिष्णु, तथा आत्मतुष्ट हो जाता है जो सात्त्विक धृति-शील पुरुष के लक्षण हैं और इस गुण से गुणान्वित होने पर सुख हो या दुःख हो, प्रिय हो या अप्रिय हो, शत्रु हो या मित्र हो, इत्यादि किसी भी घटना के घटित होने पर वह व्यक्ति न तो हर्षितोल्लासी ही होता है और न दुःखाभिभूत ही होता है वरन इन समस्त घटनाओं को निष्काम-बुद्धि से सहन करता है।[4] अत्यानन्द, परम सुख तथा परमावधि सुख प्राप्त करने के लिए बुद्धि को आत्मनिष्ठ तथा अन्तर्मुखि बनाना होता है[5] क्योंकि बुद्धि एक ऐसी इन्द्रिय है जो दो कार्य एक साथ करती है; एक ओर तो बुद्धि त्रिगुणात्मक मायादेवी[6] के अनन्त विस्तार को देखती है तो दूसरी ओर से इसके साथ-साथ ही यह विश्लेषण भी करती रहती है कि प्रकृति के इस अनन्त विस्तार के मूल में; समस्त भूत पदार्थों तथा जीव मात्र में सर्वत्र सर्वव्यापी आत्म-रूप परमब्रह्म परमेश्वर समाया हुआ तथा व्याप्त है [7] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 6 श्लोक 21, 22
- ↑ प्रकृति का दास है
- ↑ अध्याय 3 श्लोक 28
- ↑ अध्याय 2 श्लोक 14, 15; - अध्याय 5 श्लोक 14; - अध्याय 13 श्लोक 9)
- ↑ अध्याय 5 श्लोक 21-23
- ↑ प्रकृति
- ↑ अध्याय 13 श्लोक 28-30 )
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