गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
आधिदैविक-सुखः- जो सुख मनुष्य देवताओं की पूजा करके प्राप्त करना चाहता है और जिसकी उपलब्धि देवताओं द्वारा होना मानता है उस सुख को “आधिदैविक सुख” कहते हैं। अपनी इच्छाओं, आशाओं व कामनाओं की पूर्ति तथा सिद्धि के लिए जप-तप, यज्ञ-याग, हवन, दान, व्रत, उपवास आदि किए जाते हैं, और इन्द्र, वरुण, रुद्र, विष्णु, शिव, ब्रह्मा, गणेश, भैरव, भवानी, नाग, यक्ष, राक्ष आदि की अर्चना व पूजा की जाती हैं; प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति जन्य स्वाभाविक गुणों के अनुसार आचरण करता है[1]और इस देह-स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य की श्रद्धा भी सत्त्व-रज-तम गुणों के अनुसार त्रिधा व भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है; और जिस प्रकार बुद्धि के सात्त्विक, राजस और तामस तीन भेद हैं उसी प्रकार श्रद्धा के भी सात्त्विक, राजस और तामस तीन भेद कहे गए हैं[2] जिन लोगों की श्रद्धा सात्त्विक होती है उनकी बुद्धि व मति वैदिक देवताओं की उपासना में होती है; राजसी श्रद्धा वालों की बुद्धि व मति रागात्मक व कामनासक्त होने के कारण भिन्न-भिन्न व अनेक देवताओं तथा यक्ष-राक्षसों की पूजा करने में होती है; और जो लोग तामसी श्रद्धा वाले होते हैं वह भूत-पिशाच आदि की उपासना करते हैं;[3] इसी श्रद्धा व बुद्धि के अनुसार जो भी जप, तप, यज्ञ, दान, व्रत, उपवास आदि किसी कामना, इच्छा, फलाशा, स्वार्थ-सिद्धि, निज सत्कार हित या किसी अन्य प्रयोजन से किए जाते हैं वह सब पाखण्डमय कहे गए हैं[4]। गुण-परिणाम-वाद तथा कर्म-विपाक के “कर्मणा बध्यते जन्तुः” सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के सात्त्विक, राजस तथा तामसी कर्मों के फल संचित होते रहते हैं जो संचित-कर्म कहलाते हैं। इन संचित कर्मों में जिन कर्म-फलों का भोगना आरम्भ हो जाता है उसे ही “प्रारब्ध या अदृष्ट” कहते हैं; और यही संचित प्राक्तन कर्म अर्थात् प्रारब्ध अदृष्ट “दैव” कहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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