गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 77

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आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
37. मरण का स्मरण रहे

8. कॉलेज में प्रोफेसर तर्कशास्त्र पढ़ाता है- ‘‘मनुष्य मर्त्य है। सुकरात मनुष्य है, अतः सुकरात मरेगा।’’ यह अनुमान वह सिखाता है। वह सुकरात का उदाहरण देता है, खुद अपना क्यों नहीं देता? प्रोफेसर भी मर्त्य है। वह क्यों नहीं पढ़ाता कि "सब मनुष्य मर्त्य हैं, अतः मैं प्रोफेसर भी मर्त्य हूँ और तुम शिष्य भी मर्त्य हो!" वह उस मरण को सुकरात पर ढकेल देता है, क्योंकि सुकरात तो मर चुका है। वह झगड़ा करने के लिए हाजिर नहीं है। शिष्य और गुरु दोनों सुकरात को मरण सौंपकर अपने लिए ‘तेरी भी चुप, मेरी भी चुप’ वाली गति करते हैं। मानो, वे यह समझ बैठे हैं कि हम तो बहुत सुरक्षित हैं।

9. इस तरह मृत्यु को भूलने का यह प्रयत्न सर्वत्र रात-दिन जान-बूझकर हो रहा है। परंतु इससे मृत्यु कहीं टल सकती है? कल यदि मां मर जाये, तो मौत सामने आने ही वाली है। मनुष्य निर्भयतापूर्वक मरण का विचार करके यह हिम्मत ही नहीं करता कि उसमें से रास्ता कैसे निकाला जाये। मान लो कि कोई शेर हिरन के पीछे पड़ा है। वह हिरन खूब चौकड़ी भरता है, परंतु उसकी शक्ति कम पड़ती जाती है और अंत में वह थक जाता है। पीछे से वह शेर, यमदूत दौड़ा आ ही रहा है। उस समय उस हिरन की क्या दशा होती है? वह उस शेर की ओर देख भी नहीं सकता। वह मिट्टी में सींग और मुंह घुसाकर, आंख मूंदकर खड़ा हो जाता है, मानो निराधार होकर कहता है- "ले, आ और मुझे हड़प जा।" हम मृत्यु का सामना नहीं कर सकते। उससे बचने के लिए हम हजारों तरकीबें निकालें तो भी उसका जोर इतना होता है कि अंत में वह धर दबाती ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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