गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 78

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आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
37. मरण का स्मरण रहे

10. और फिर जब मृत्यु आती है, तब मनुष्य अपने जीवन की रोकड़-बाकी देखने लगता है। परीक्षा में बैठा हुआ आलसी, मंद विद्यार्थी दवात में कलम डुबोता है, बाहर निकालता है, परंतु सफेद कागज को काला करने की हिम्मत नहीं करता। अरे भाई, कुछ लिखोगे भी या नहीं? सरस्वती आकर थोड़े ही लिख जायेगी! तीन घंटे समाप्त हो जाते हैं, वह कोरा कागज दे देता है या अंत में कुछ घसीट मारता है। सवाल हल करना है, जवाब लिखना है, यह उसे सूझता ही नहीं। वह इधर देखता है, उधर देखता है। ऐसा ही हमारा हाल है। अतः हमें चाहिए कि हम इस बात को याद रखकर कि जीवन का छोर मृत्यु की ओर गया हुआ है, अंतिम क्षण को पुण्यमय, अत्यंत पावन और मधुर बनाने का अभ्यास जीवन भर करते रहें।

आज से ही इस बात का विचार करते रहना चाहिए कि मन पर उत्तम-से-उत्तम संस्कार कैसे पड़े। परंतु अच्छे संस्कारों के अभ्यास की पड़ी किसे है? इससे विपरीत, बुरी बातों का अभ्यास पग-पग पर होता रहता है। जीभ, आंख और कान को हम चटोरपन सिखा रहे हैं। चित्त को इससे भिन्न अभ्यास में लगाना चाहिए। अच्छी बातों की ओर चित्त लगाना चाहिए। उनमें उसे रंग देना चाहिए। जिस क्षण अपनी भूल प्रतीत हो जाये, उसी क्षण से उसे सुधारने में व्यस्त हो जाना चाहिए। भूल मालूम हो जाने पर भी क्या वही करते रहेंगे? जिस क्षण हमें अपनी भूल मालूम हुई, उसी क्षण हमारा पुनर्जन्म हुआ। उसे अपना नवीन बचपन, अपने जीवन का नव-प्रभात समझो। अब तुम सचमुच जगे हो। अब दिन-रात जीवन की जांच-पड़ताल करते रहो और सावधान रहो। ऐसा न करोगे तो फिर फिसलोगे, फिर बुरी बात का अभ्यास शुरू हो जायेगा।

11. बहुत साल पहले मैं अपनी दादी से मिलने गया था। वह बहुत बूढ़ी हो गयी थी। वह मुझसे कहती- "विन्या, अब मुझे कुछ याद नहीं रहता। घी की बरनी लेने जाती हूँ और उसे बिना लिये ही लौट आती हूँ।" परंतु वह 50 साल पहले की गहनों की एक बात मुझसे कहा करती। पांच मिनट पहले की बात याद नहीं, मगर पचास साल पहले के बलवान संस्कार अंत तक सतेज हैं। इसका कारण क्या है? वह गहने वाली बात उसने हर एक से कही होगी। उस बात का सतत उच्चरण होता रहा। अतः वह जीवन से चिपककर बैठ गयी। जीवन के साथ एकरूप हो गयी। मैंने मन में कहा- "भगवान करे, दादी को मरते समय उन गहनों की याद न आये।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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