सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
32. भक्ति का भव्य दर्शन
8. इस आनंद का पता लगाने के लिए उत्कृष्ट मार्ग है- भक्ति। इस रास्ते चलते-चलते परमेश्वरीय कुशलता मालूम हो जायेगी। उस दिव्य कल्पना के आते ही दूसरी सब कल्पनाएं अपने-आप विलीन हो जायेंगी। फिर क्षुद्र आकर्षण नहीं रह जायेगा। फिर संसार में एक आनंद ही भरा हुआ दिखायी देगा। मिठाई की दुकानें भले ही सैकड़ों हों, परंतु मिठाइयों का प्रकार एक-सा होता है। जब तक असली चीज हाथ नहीं लगेगी, तब तक हम चंचल चिड़िया की तरह एक चीज यहाँ की खायेंगे, एक वहाँ की।
सुबह मैं तुलसी-रामायण पढ़ रहा था। दीपक के पास कीड़े जमा हो रहे थे। इतने में वहाँ एक छिपकली आयी। उसे मेरी रामायण से क्या लेना-देना था। कीड़े देखकर उसे बड़ा आनंद हो रहा था। वह कीड़ों पर झपटने वाली थी कि मैंने जरा हाथ हिलाया, वह भाग गयी। परन्तु उसका ध्यान एक-सा लगा था कीड़े की ओर। मैंने अपने मन से पूछा- "तू खायेगा इस कीड़े को? तेरी जीभ से लार टपकती है?" मेरी जीभ से लार नहीं टपकी। जिस रस का आनंद मैं लूट रहा था, उसका उस बेचारी छिपकली को क्या पता? वह रामायण का रस नहीं चख सकती थी। इस छिपकली की तरह हमारी दशा है। हम नाना रसों में मस्त हैं। परंतु यदि सच्चा रस मिल जाये, तो कैसी बहार आये! भगवान भक्तिरूपी एक साधन दिखा रहे हैं, जिससे हम उस असली रस को चख सकें।
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