तीसरा अध्याय
कर्मयोग
12. कर्मयोग के विविध प्रयोजन
10. कर्मयोगी के कर्म से एक और भी उत्तम फल मिलता है और वह है, समाज के सामने एक आदर्श। समाज में यह भेद तो है ही कि यह पहले जनमा है और वह बाद में। जिनका जन्म पहले हुआ है, उनके जिम्मे बाद में पैदा होने वालों के लिए उदाहरण बन जाने का काम रहता है। बड़े भाई पर छोटे भाई को, मां-बाप पर बेटा-बेटी को, नेता पर अनुयायियों को, गुरु पर शिष्य को, अपनी कृति के द्वारा उदाहरण पेश करने की जिम्मेदारी है। ऐसा उदाहरण कर्मयोगी के सिवा और कौन उपस्थित कर सकता है?
कर्मयोगी सदैव कर्म-रत रहता है; क्योंकि कर्म में ही उसे आनंद मालूम होता है। इससे समाज में दंभ नहीं बढ़ता। कर्मयोगी स्वयंतृप्त होता है, तो भी कर्म किये बिना उससे रहा नहीं जाता। तुकाराम कहते है- "भजन से भगवान मिल गया, तो क्या इसलिए मैं भजन छोड़ दूं? भजन तो अब हमारा सहज धर्म हो गया।"
आधीं होता संतसंग। तुका झाला पांडुरंग। त्याचें भजन राहीना। मूळस्वभाव जाईना॥
'पहले संतसंग था, जिससे तुकाराम पांडुरंग बन गया। लेकिन उसके भजन का तार अब टूटता नहीं। भला मूल स्वभाव भी कहीं छूटता है?'
कर्म की सीढ़ी से चढ़कर शिखर तक पहुँच गये। परन्तु शिखर पर पहुँचने पर भी कर्मयोगी सीढ़ी नहीं छोड़ता। वह उससे छूट ही नहीं सकती। उसकी इंद्रियों को उन कर्मो को करने की सहज आदत पड़ जाती है। इस तरह स्वधर्म-कर्मरूपी सेवा की सीढ़ी का महत्त्व व समाज को जंचाता रहता है।
समाज से ढोंग का मिटना बहुत ही बड़ी चीज है। ढोंग-पाखंड से समाज डूब जाता है। ज्ञानी यदि शांत बैठ जाये, तो उसे देखकर दूसरे भी हाथ-पर-हाथ धरकर बैठने लगेंगे। ज्ञानी तो नित्य तृप्त होने के कारण आंतरिक सुख में तल्लीन रहकर शांत रहेगा; परन्तु दूसरा मनुष्य भीतर से रोता हुआ भी कर्म-शून्य हो जायेगा। एक अंतस्तृप्त होकर स्वस्थ बैठा है, तो दूसरा मन में कुढ़ता हुआ स्वस्थ बैठा है-ऐसी स्थिति भयंकर है। इससे दंभ, पाखंड बढ़ेगा। अतः सारे संत शिखर पर पहुँचकर भी साधना का पल्ला बड़ी सतर्कता से पकड़े रहे, आमरण स्वधर्माचरण करते रहे। माता बच्चों के गुड्डा-गुड़ियों के खेल में शरीर होकर उनमें रुचि उत्पन्न करती है। मां यदि उन खेलों में शरीक न हो, तो बच्चों को उनमें मजा नहीं आयेगा। कर्मयोगी तृप्त होकर कर्म छोड़ देगा, तो दूसरे अतृप्त रहते हुए भी कर्म छोड़ देंगे, हालांकि मन में भूखे और निरानंद रहेंगे।
अतः कर्मयोगी मामूली आदमी की तरह ही कर्म करता रहता है। वह यह नहीं मानता कि मैं कोई विशिष्ट मनुष्य हूँ। औरों की अपेक्षा वह अनंतगुना परिश्रम बाहर से करता है। अमुक एक कर्म पारमार्थिक है, ऐसी छाप लगाने की जरूरत नहीं है। कर्म का विज्ञापन करने की जरूरत नहीं है। यदि तुम उत्कृष्ट ब्रह्मचारी हो, तो अपने कर्म में औरों की अपेक्षा सौ गुना उत्साह दीखने दो। कम खाना मिलने पर भी तिगुना काम होने दो, समाज की सेवा अपने द्वारा अधिक होने दो। अपना ब्रह्मचर्य अपने आचार-व्यवहार में दीखने दो। चंदन की सुगंध बाहर फैलने दो।
सार यह है कि कर्मयोगी फल की इच्छा छोड़ने से ऐसे अनंत फल प्राप्त करेगा। उसकी शरीर-यात्रा चलती रहेगी। शरीर और बुद्धि दोनों सतेज रहेंगे। जिस समाज में वह विचरेगा, वह समाज सुखी होगा। उसकी चित्तशुद्धि होकर ज्ञान भी मिलेगा और समाज से ढोंग, पाखंड मिटकर जीवन का पवित्र आदर्श भी प्रकट होगा। कर्मयोग की यह अनुभव सिद्ध महिमा है।
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