तीसरा अध्याय
कर्मयोग
13. कर्मयोग–व्रत का अंतराय
11. कर्मयोगी अपना कर्म औरों की अपेक्षा उत्कृष्ट रीति से करेगा; क्योंकि उसके लिए कर्म ही उपासना है, कर्म ही पूजा है। मैंने भगवान का पूजन किया। फिर पूजा का नैवेद्य प्रसाद के रूप में पाया। परंतु क्या वह नैवेद्य उस पूजा का फल है, जो नैवेद्य के लिए पूजन करेगा, उसे प्रसाद का अंश तो तुरंत मिलेगा ही। परन्तु जो कर्मयोगी है, वह अपने पूजा-कर्म के द्वारा परमेश्वर-दर्शनरूपी फल चाहता है। वह उस कर्म की कीमत इतनी थोड़ी नहीं समझता कि सिर्फ प्रसाद ही मिल जायें। वह अपने कर्म की कीमत कम आंकने के लिए तैयार नहीं है। स्थूल नाप से वह अपने कर्मों को नहीं नापता। जिसकी स्थूल दृष्टि है, उसे फल भी स्थूल ही मिलेगा। खेती की एक कहावत है- गहरा बो, पर गीला बो। महज गहरे जोतने से काम नहीं चलेगा, नीचे तरी भी होनी चाहिए। गहराई और तरी दोनों होंगी तो भुट्टा बड़ा, कलाई के बराबर निकलेगा। अतः कर्म गहरा अर्थात उत्कृष्ट होना चाहिए। फिर उसमें ईश्वर-भक्ति की ईष्वरार्पणतारूपी तरी भी होनी चाहिए। कर्मयोगी गहरा कर्म करके उसे ईश्वरार्पण कर देता है। परमार्थ के सम्बन्ध में कुछ मूर्खतापूर्ण कल्पनाएं हमारे अंदर फैल गयी हैं। लोग समझते हैं कि जो परमार्थी हो गया, उसे हाथ-पांव हिलाने की जरूरत नहीं, काम-काज करने की जरूरत नहीं। कहते हैं, जो खेती करता है, खादी बुनता है, वह कैसा परमार्थी? परन्तु कोई यह नहीं पूछता कि जो भोजन करता है, वह कैसा परमार्थी? कर्मयोगियों का परमेश्वर तो कहीं घोड़ों को खरहरा करता है, कहीं राजसूय-यज्ञ के समय जूठी पत्तलें उठाता है, कहीं जंगल में गायें चराने जाता है। वह द्वारिकाधीश फिर कभी गोकुल जाता, तो बंसी बजाते हुए गायें ही चराता। इस तरह संतों ने तो घोड़ों को खरहरा करने वाला, गायें चराने वाला, रथ हांकने वाला, पत्तल उठाने वाला, लीपने वाला, कर्मयोगी परमेश्वर खड़ा किया है। और खुद संत भी कोई दरजी का तो कोई कुम्हार का, कोई बुनकर का तो कोई माली का, कोई आटा पीसने का तो कोई बनिये का, कोई नाई का तो कोई मरे ढोर खींचने का, काम करते-करते मुक्त हो गये हैं। 12. ऐसे इस दिव्य कर्मयोग के व्रत से मनुष्य दो कारणों से डिगता है। इस सिलसिले में हमें इंद्रियों का विशिष्ट स्वभाव ध्यान में रखना चाहिए। हमारी इन्द्रियां सदैव ‘यह चाहिए और वह नहीं चाहिए’- ऐसे द्वंद्वों से घिरी रहती हैं। जो चाहिए, उसके लिए राग अर्थात प्रीति, और जो नहीं चाहिए, उसके प्रति मन में द्वेष उत्पन्न होता है। ऐसे ये राग-द्वेष, काम-क्रोध मनुष्य को नोच-नोचकर खाते हैं कर्मयोग वैसे कितना बढ़िया, कितना रमणीय, कितना अनंत फलदायी है! परन्तु ये काम-क्रोध ‘इसे ले और उसे छोड़’- ऐसा झमेला हमारे पीछे लगाकर दिन-रात हमे सताते रहते हैं। अतः भगवान इस अध्याय के अंत में खतरे की घंटी बजाते हैं कि इनका संग छोड़ो, इनसे बचो। स्थितप्रज्ञ जिस प्रकार संयम की मूर्ति होता है, उसी प्रकार कर्मयागी को बनना चाहिए।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रविवार, 6-3-32
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