गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 214

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सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
99. समर्पण का मंत्र

25. ‘ऊँ‘ का अर्थ है ‘हां’। परमात्मा है, इस बीसवीं शताब्दी में भी परमात्मा है स एव अद्य स उ श्वः। वही आज है, वही कल था और वही कल होगा। वह कायम है। सृष्टि कायम है और कमर कसकर मैं भी साधना करने के लिए तैयार हूँ। मैं साधक हूं, वह भगवान है और यह सृष्टि पूजा-द्रव्य, पूजा-साधन है। जब ऐसी भावना से मेरा हृदय भर जायेगा, तभी कहा जा सकेगा कि ‘ऊँ’ मेरे गले उतरा। वह है, मैं हूँ और मेरी साधना भी है- ऐसा यह ऊँ कार-भाव मन में पैठ जाना चाहिए और साधना में प्रकट होना चाहिए। सूर्य को जब कभी देखिए, वह किरणों सहित है। वह किरणों को दूर रखकर कभी रह ही नहीं सकता। वह किरणों को भूलता नहीं। इसी प्रकार कोई भी किसी भी समय क्यों ने देखे, साधना हमारे पास दिखायी देनी चाहिए। जब ऐसा हो जायेगा, तभी यह कहा जा सकेगा कि ‘ऊँ’ को हमने पचा लिया।

इसके बाद है ‘सत्’ परमेश्वर सत् है अर्थात् शुभ है, मंगल है। इस भावना से अभिभूत होकर भगवान के मांगल्य का सृष्टि में अनुभव करो। देखो, वह पानी की सतह! पानी में से एक घड़ा भर लो। उससे जो गड्ढा पड़ेगा, वह क्षण भर में ही भर जायेगा। यह कितना मांगल्य है? यह कितनी प्रीति है? नदी वेगेन शुद्धयति।- सृष्टिरूपी नदी वेग से शुद्ध हो रही है। सारी सृष्टि शुभ और मंगल है। अपने कर्म को भी ऐसा ही होने दो। परमेश्वर के इस ‘सत्’ नाम को आत्मसात् करने के लिए सारी क्रियाएं निर्मल और भक्तिमय होनी चाहिए। सोमरस जिस तरह पवित्रकों में से छाना जाता था, उसी तरह अपने कर्मों और साधनों को नित्य परीक्षण करके निर्दोष बनाना चाहिए।

अब रहा ‘तत्’ का अर्थ है ‘वह’- कुछ तो भी भिन्न, इस सृष्टि से अलिप्त। परमात्मा इस सृष्टि से भिन्न है अर्थात अलिप्त है। सूर्योदय होते ही कमल खिलने लगते हैं, पक्षी उड़ने लगते हैं और अंधकार नष्ट हो जाता है। परंतु ‘सूर्य’ तो दूर ही रहता है। इन सब परिणामों से वह बिल्कुल अलग-सा रहता है। हम अपने कर्मों में अनासक्ति रखें, अलिप्तता लायें, तब माना जायेगा कि हमारे जीवन में ‘तत्’ नाम प्रविष्ट हुआ।

26. इस प्रकार गीता ने यह ऊँ तत्सत् वैदिक नाम लेकर अपनी सब क्रियाओं को ईश्वरार्पण करना सिखाया है। पीछे नौवें अध्याय में सब कर्मों को ईश्वरार्पण करने का विचार आया है। यत्करोषि यदश्नासि इस श्लोक में यही कहा गया है। इसी बात का इस सत्रहवें अध्याय में विवरण किया गया है। परमेश्वर को अर्पण करने की क्रिया सात्त्विक होनी चाहिए। तभी वह पमेश्वरार्पण की जा सकेगी- यह बात यहाँ विशेष रूप में बतायी गयी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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