गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 213

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सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
99. समर्पण का मंत्र

23. गीता यह भी कहती है कि जीवन को यज्ञमय बनाकर फिर उस सबको ईश्वरार्पण कर देना चाहिए। जीवन के सेवामय हो जाने पर फिर और ईश्वरार्पणता किसलिए? हम यह सरलता से कह तो देते हैं कि सारा जीवन सेवामय कर दिया जाये, परंतु ऐसा करना बहुत कठिन है। अनेक जन्मों के प्रयत्न के बाद वह थोड़ा-बहुत सध सकता है। अलावा, भले ही सारे कर्म सेवामय अक्षरशः सेवामय हो जाये, तो भी उससे ऐसा नहीं कह सकते कि वे पूजामय हो ही गये। इसलिए, ‘ऊँ तत्सत्’ इस मंत्र के साथ सारे कर्म ईश्वरार्पण करने चाहिए।

सेवा-कर्म वैसे सोलहों आना सेवामय होना कठिन है, क्योंकि परार्थ में भी स्वार्थ आ ही जाता है। केवल परार्थ संभव ही नहीं है। ऐसा कोई काम नहीं हो सकता, जिसमें मेरा लेशमात्र भी स्वार्थ न हो। इसलिए प्रतिदिन अधिक निष्काम और अधिक निःस्वार्थ सेवा हाथों से हो, ऐसी इच्छा रखनी चाहिए। यदि यह चाहते हों कि सेवा उत्तरोत्तर अधिक शुद्ध हो, तो सारी क्रियाएं ईश्वरार्पण करो। ज्ञानदेव ने कहा है- नामामृत गोडी वैष्णवां लाधली। योगियां साधली जीवनकळा॥वैष्णवों को नामामृत का माधुर्य मिला है। योगियों को जीवन-कला सधी है।’ नामामृत की मधुरता और जीवन-कला अलग-अलग नहीं है। नाम का आंतरिक घोष और बाह्य जीवन-कला, दोनों का मेल है। योगी और वैष्णव एक ही हैं। परमेश्वर को क्रिया अर्पण कर देने पर स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ, सब एकरूप हो जाते हैं। पहले तो जो ‘तुम’ और ‘मैं’ अलग-अलग हैं, उन्हें एक करना चाहिए। ‘तुम’ और ‘मैं’ मिलने से ‘हम’ हो गये। अब ‘हम’ और ‘वह’ को एक कर डालना है। पहले मुझे इस सृष्टि से मेल साधना है और फिर परमात्मा से। ऊँ तत्सत् मंत्र में यह भाव सूचित किया जाता है।

24. परमात्मा के अनंत नाम हैं। व्यास जी ने तो उन नामों का ‘विष्णुसहस्रनाम’ बना दिया है। जो-जो नाम हम कल्पित कर लें, वे सब उसके हैं। जो नाम हमारे मन में स्फुरित हो, उसी अर्थ में उसे हम सृष्टि में देखें और तदनुरूप अपना जीवन बनायें। परमेश्वर का जो नाम मन को भाये, उसी को हम सृष्टि में देखें और उसी के अनुसार हम बनें, इसको मैं ‘त्रिपदा गायत्री’ कहता हूँ। उदाहरण के लिए ईश्वर का ‘दयामय’ नाम ले लीजिए। ऐसा मानकर चलें कि वह ‘रहीम’ है। अब उसी दया-सागर परमेश्वर को इस सृष्टि में आंखें खोलकर देखें। भगवान ने प्रत्येक बच्चे को उसकी सेवा के लिए माता दी है, जीने के लिए हवा दी है। इस तरह उस दयामय प्रभु की सृष्टि में जो दया की योजना है, उसे देखें और अपना जीवन भी दयामय बनायें। भगवद्गीता के काल में भगवान को जो नाम प्रसिद्ध था, वही भगवद्गीता ने सुझाया है। वह है ऊँ तत्सत्।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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