सोलहवां अध्याय
परिशिष्ट-1
दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा
90. अहिंसा के विकास की चार मंज़िलें
12. संतों के प्रयोग के बाद आज हम चौथा प्रयोग कर रहे हैं। वह है- सारा समाज मिलकर अहिंसात्मक साधनों से हिंसा का प्रतिकार करे। इस तरह चार प्रयोग अब तक हुए हैं। प्रत्येक प्रयोग में अपूर्णता थी और है। विकास-क्रम में यह बात अपरिहार्य ही है। परंतु यह तो कहना ही होगा कि उस-उस काल के लिए वे-वे प्रयोग पूर्ण ही थे और दस हजार साल के बाद आज के इस हमारे अहिंसक यृद्ध में भी बहुत-कुछ हिंसा का अंश दिखायी देगा। शुद्ध अहिंसा के और प्रयोग होते ही रहेंगे। ज्ञान कर्म और भक्ति का ही नहीं, सभी सद्गुणों का विकास हो रहा है। पूर्ण वस्तु एक ही है। वह है परमात्मा। भगवद्गीता का पुरुषोत्तम योग पूर्ण है, परंतु व्यक्ति और समुदाय के जीवन में अभी उनका पूर्ण विकास होना बाकी है। वचनों का भी विकास होता है। ऋषि मंत्रों के द्रष्टा समझे जाते थे, कर्ता नहीं, क्योंकि उन्हें मंत्रों का जो अर्थ दीखा, वही उसका अर्थ हो, सो बात नहीं। उन्हें उनका एक दर्शन हुआ। उसके बाद हमें उसका और विकसित अर्थ दीख सकता है। उनसे यदि हमें कुछ अधिक दीख जाता है, तो यह हमारी विशेषता नहीं है, क्योंकि उन्हीं के आधार पर हम आगे बढ़ते हैं। मैं यहाँ अहिंसा के ही विकास की जो बात कर रहा हूं, वह इसलिए कि यदि हम सब सद्गुणों का साधारण रूप से सार निकालें, तो वह अहिंसा ही निकलेगा, और दूसरे, हम आज अहिंसात्मक युद्ध में पड़े हुए भी हैं। इस तरह हमने देखा कि इस तत्त्व का विकास कैसे हो रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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