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चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
79. स्वधर्म का निश्चय कैसे करें?
19. चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था को एक ओर रख दें, तो भी सभी राष्ट्रों में सर्वत्र जहाँ यह व्यवस्था नहीं है वहाँ भी, स्वधर्म सबको प्राप्त ही है। हम सब एक प्रवाह में किसी एक परिस्थिति को साथ लेकर जनमे हैं, इसीलिए स्वधर्माचरणरूपी कर्तव्य स्वतः ही हमें प्राप्त रहता है। अतः जो दूरवर्ती कर्तव्य हैं- जिन्हें वास्तव में कर्तव्य कहना ठीक नहीं वे कितने ही अच्छे दिखायी देने पर भी ग्रहण नहीं करने चाहिए। बहुत बार दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। मनुष्य दूर की बातों पर लट्टू हो जाता है। मनुष्य जहाँ खड़ा है, वहाँ भी गहरा कुहरा फैला रहता है, परंतु पास का घना कुहरा उसे नहीं दीखता। वह दूर अंगुली बताकर कहता है- ‘वहाँ घना कुहरा फैला है।’ उधर का मनुष्य इसकी ओर अंगुली बताकर कहता है- ’उधर कुहरा घना है।’ कुहरा सब जगह है, परंतु पास का दिखायी नहीं देता। मनुष्य को दूर का आकर्षण रहता है। निकट का कोने में पड़ा रहता है और दूर का स्वप्न में दीखता है। परंतु यह मोह है। इसे छोड़ना ही चाहिए। प्राप्त स्वधर्म यदि साधारण हो, घटिया हो, नीरस लगता हो, तो भी जो मुझे प्राप्त है, वही अच्छा है। वही मेरे लिए सुंदर है। जो मनुष्य समुद्र में डूब रहा हो, उसे कोई टेढ़ा-मेढ़ा और भद्दा सा लकड़ी का टुकड़ा मिले, पॉलिश किया हुआ चिकना और सुंदर न मिले, तो भी वही तारने वाला है। बढ़ई के कारखाने में बहुत-से बढ़िया चिकने और बेल-बूटेदार टुकड़े पड़े होंगे, परंतु वे तो कारखाने में और यह यहाँ समुद्र में डूब रहा है! अतएव व बेढंगा लकड़ी का टुकड़ा ही उसका तारक है, उसी को उसे पकड़ लेना चाहिए। इसी तरह जो सेवा मुझे प्राप्त हुई है, गौण मालूम होने पर भी वही मेरे काम की है। उसी में मग्न हो जाना मुझे शोभा देता है। उसी में मेरा उद्धार है। यदि मैं दूसरी सेवा खोजने के चक्कर में पड़ूंगा, तो पहली सेवा भी जायेगी और दूसरी भी। इससे मनुष्य सेवा-वृत्ति से दूर भटक जाता है। अतः स्वधर्मरूप कर्तव्य में ही मग्न रहना चाहिए।
20. जब हम स्वधर्म में मग्न रहने लगते हैं, तो रजोगुण फीका पड़ जाता है, क्योंकि तब चित्त एकाग्र होता है और वह स्वधर्म छोड़कर कहीं जाता ही नहीं। इससे चंचल रजोगुण का सारा जोर ही ढीला पड़ जाता है। नदी जब शांत और गहरी होती है, तो कितना ही पानी उसमें बढ़ जाये, तो भी वह उसे अपने पेट में समा लेती है। इसी तरह स्वधर्मरूपी नदी मनुष्य का सारा बल, सारा वेग, सारी शक्ति अपने भीतर समा ले सकती है। स्वधर्म में जितनी शक्ति लगाओगे, उतनी कम ही है। स्वधर्म में आप शक्ति-सर्वस्व लगा दोगे, तो फिर रजोगुण की दौड़-धूपवाली वृत्ति समाप्त हो जायेगी। मानो चंचलता का डंक ही कुचल दिया। यह रीति है रजोगुण को जीतने की।
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