गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 171

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चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
80. सत्त्वगुण और उसका उपाय

21. अब रहा सत्त्वगुण। इससे बहुत संभलकर बरतना चाहिए। इससे आत्मा को अलग कैसे करें? बड़े सूक्ष्म विचार की यह बात है। सत्त्वगुण को पूर्णतः निर्मूल नहीं करना है। रज-तम का तो पूर्ण उच्छेद ही करना पड़ता है। परंतु सत्त्व गुण की भूमिका कुछ अलग है। जब बहुत भीड़ इकट्ठी हो गयी हो और उसे तितर-बितर करना हो, तो सिपाहियों को हुक्म दिया जाता है कि कमर के ऊपर नहीं, पांव की तरफ गोलियां चलाओ। इससे मनुष्य मरता नहीं, घायल हो जाता है। इसी तरह सत्त्वगुण को घायल कर देना है, मार नहीं डालना है। रजोगुण और तमोगुण के चले जाने पर शुद्ध सत्त्वगुण रह जाता है। जब तक हमारा शरीर कायम है, तब तक हमें किसी-न-किसी भूमिका में रहना ही पड़ेगा। तो फिर रज-तम के चले जाने पर जो सत्त्वगुण रहेगा, उससे अलग रहने का अर्थ क्या है?

सत्त्वगुण का अभिमान हो जाता है। वह अभिमान आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप से नीचे खींच लाता है। लालटेन का प्रकाश स्वच्छ रूप में बाहर फैलाना हो तो उसके अंदर की सारी कालिख पोंछ देनी पड़ती है। यदि कांच पर धूल जम गयी हो, तो वह भी धो डालनी पड़ती है। इसी तरह आत्मा की प्रभा के आसपास जो तमोगुणरूपी कालिख जमा रहती है, उसे अच्छी तरह दूर करना चाहिए। उसके बाद रजोगुणरूपी धूल को भी साफ कर देना है। इस तरह जब तमोगुण धो डाला, रजोगुण को साफ कर डाला तो अब सत्त्वगुण रूपी कांच बाकी रह गया। इस सत्त्वगुण को भी दूर करने का अर्थ क्या यह है कि हम कांच को भी फोड़ डालें? नहीं! यदि कांच ही फोड़ डालेंगे तो फिर प्रकाश का कार्य नहीं होगा। ज्योति का प्रकाश फैलाने के लिए कांच तो चाहिए ही। अतः इस शुद्ध चमकदार कांच को फोड़े तो नहीं, परंतु एक ऐसा छोटा-सा कागज का टुकड़ा उसके सामने जरूर लगा दें, जिससे आंखें चकाचौंध न हो जायें। सिर्फ आंखों को चकाचौंध न होने देने की जरूरत है। सत्त्वगुण पर विजय पाने का अर्थ यह है कि उसके प्रति हमारा अभिमान, हमारी आसक्ति हट जाये। सत्त्वगुण से काम तो लेना है, परंतु सावधानी से और युक्ति से। सत्त्वगुण को निरहंकारी बना देना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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