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चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
79. स्वधर्म का निश्चय कैसे करें?
17. ‘यह स्वधर्म निश्चित कैसे किया जाये?’- ऐसा कोई प्रश्न करे, तो उसका उत्तर है- ‘वह स्वाभाविक होता है।’ स्वधर्म सहज होता है। उसे खोजने की कल्पना ही विचित्र मालूम होती है। मनुष्य के जन्म के साथ ही उसका स्वधर्म भी जनमा है। बच्चे के लिए जैसे उसकी मां खोजनी नहीं पड़ती, वैसे ही स्वधर्म भी किसी को खोजना नहीं पड़ता। वह तो पहले से ही प्राप्त है। हमारे जन्म के पहले भी दुनिया थी, हमारे बाद भी वह रहेगी। हमारे पीछे भी एक बड़ा प्रवाह था और आगे भी वह है ही- ऐसे प्रवाह में हमारा जन्म हुआ है। जिन मां-बाप के यहाँ मैंने जन्म लिया है, उनकी सेवा; जिन पास-पड़ोसियों के बीच जनमा हूं, उनकी सेवा- ये कर्म मुझे निसर्गतः ही मिले हैं। फिर मेरी वृत्तियां तो मेरे नित्य अनुभव की ही हैं न? मुझे भूख लगती है, प्यास लगती है; अतः भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी पिलाना, यह धर्म मुझे सहज ही प्राप्त हो गया। इस प्रकार यह सेवा रूप, भूतदया रूप स्वधर्म हमें खोजना नहीं पड़ता। जहाँ कहीं स्वधर्म की खोज हो रही हो, वहाँ निश्चित समझ लेना चाहिए कि कुछ-न-कुछ परधर्म अथवा अधर्म हो रहा है।
सेवक को सेवा खोजने कहीं जाना नहीं पड़ता। वह खुद होकर उसके पास आ जाती है। परंतु एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जो अनायास प्राप्त हो, वह सदा धर्म्य ही होता है, ऐसी बात नहीं हैं। कोई किसान रात को मुझसे कहे- 'चलो, वह बाड़ चार-पांच हाथ आगे हटा दें। मेरा खेत बढ़ जायेगा। अभी कोई है नहीं, बिना शोरगुल के सब काम हो जायेगा!’ यद्यपि यह काम मुझे अपना पड़ोसी बता रहा है और यह सहज प्राप्त-सा भी दीखता है, तो भी असत्य होने के कारण वह मेरा कर्तव्य नहीं ठहरता।
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