चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
78. रजोगुण और उसका उपाय स्वधर्म-मर्यादा
15. रजोगुण का दूसरा परिणाम यह होता है कि मनुष्य में स्थिरता नहीं रहती। रजोगुण तत्काल फल चाहता है। अतः जरा-सी विघ्नबाधा आते ही वह अंगीकृत मार्ग छोड़ देता है। रजोगुणी मनुष्य सतत इसे ले, उसे छोड़, ऐसे करता रहता है। उसका चुनाव रोज बदलता रहता है। इसका परिणाम यही होता है कि अंत में पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता। राजसं चलमध्रुवम्- रजोगुण की सारी कृति चंचल और अनिश्चित रहती है। छोटे बच्चे गेहूँ बोते हैं और तुरंत खोदकर देखते हैं। वैसा ही हाल रजोगुणी मनुष्य का होता है। झटपट सबकुछ उसके पल्ले पड़ना चाहिए। वह अधीर हो उठता है। संयम खो देता है। एक जगह पांव जमाना वह जानता ही नहीं। यहाँ जरा-सा काम किया, वहाँ कुछ प्रसिद्धि हुई कि चला दूसरी जगह। आज मद्रास में मानपत्र, कल कलकत्ते में और परसों बंबई-नागपुर में! सभी म्युनिसिपैलिटियों से मानपत्र पाने की उसे लालसा रहती है। सन्मान यह एक ही चीज उसे दीखती है। एक जगह जमकर काम करने की उसे आदत ही नहीं होती। इससे रजोगुणी मनुष्य की स्थिति बड़ी भयानक होती है। 16. रजोगुण के प्रभाव से मनुष्य विविध धंधों, कार्यों में टांग अड़ाता रहता है। उसे स्वधर्म नहीं रहता। वास्तविक स्वधर्माचरण का अर्थ है, अन्य बहुतेरे कार्यों का त्याग। गीता का कर्मयोग रजोगुण का रामबाण उपाय है। रजोगुण में सब कुछ चंचल है। पर्वत के शिखर पर से गिरने वाला पानी यदि विविध दिशाओं में बहने लगे, तो फिर वह कहीं का नहीं रहता। सारा-का-सारा बिखरकर बेकार हो जाता है। परंतु वही यदि एक दिशा में बहेगा, तो आगे चलकर उसकी एक नदी बन जायेगी। उसमें से शक्ति उत्पन्न होगी। देश को उससे लाभ पहुँचेगा। इसी तरह मनुष्य यदि अपनी शक्ति विविध उद्योगों में न लगाकर उसे एकत्र करके एक ही कार्य में सुव्यवस्थित रूप से लगाये, तो उसके हाथ से कुछ कार्य हो सकेगा। इसलिए स्वधर्म का महत्त्व है। स्वधर्म का सतत चिंतन करके उसी में सारी शक्ति लगानी चाहिए। दूसरी बात की ओर ध्यान ही न जाने पाये। यही स्वधर्म की कसौटी है। कर्मयोग यानि कोई बड़ा प्रचंड कर्म नहीं। केवल बहुत कर्म करना भी कर्मयोग नहीं है। गीता का कर्मयोग कुछ और ही चीज है। उसकी विशेषता है कि फल की ओर ध्यान न देते हुए केवल स्वभाव-प्राप्त अपरिहार्य स्वधर्म का पालन करना और उसके द्वारा चित्त-शुद्धि करते रहना। यों तो सृष्टि में सतत कर्म-कलाप होता ही रहता है। कर्मयोग का अर्थ है, विशिष्ट मनोवृत्ति से समस्त कर्म करना। खेत में बीज बोना और यों ही मुट्ठीभर अनाज लेकर कहीं फेंक देना- दोनों सर्वथा भिन्न बातें हैं। दोनों में बड़ा अंतर है। हम देखते ही हैं कि अनाज बोने से कितना फल मिलता है और यों ही उसे फेंक देने से कितना नुकसान होता है। गीता जिस कर्म का उपदेश देती है, वह बुआई की तरह है। ऐसे स्वधर्म रूप कर्तव्य में असीम शक्ति रहती है। वहाँ सभी परिश्रम अधूरे पड़ते हैं। अतः उसमें भारी दौड़-धूप के लिए कोई अवसर ही नहीं रहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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