गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 145

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तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
68. सुधार का मूलाधार

8. देह में अथवा मन में रहने वाले किसी दोष का ज्ञान होना बुरा नहीं। इससे उस दोष को दूर करने में सहायता मिलती है; परंतु हमें यह बात साफ तौर से मालूम रहनी चाहिए कि 'मैं देह नहीं हूँ।' 'मैं' जो हूं, सो इस देह से सर्वथा भिन्न, पृथक, अत्यंत सुंदर, उज्ज्वल, पवित्र, निर्दोष हूँ। अपने दोषों को दूर करने के लिए जो आत्म-परीक्षण करता है, वह भी तो अपने को देह से पृथक करके ही ऐसा करता है। अतः जब कोई उसे उसका दोष दिखाता है तो उसे गुस्सा नहीं आता; बल्कि इस शरीररूप, इस मनोरूपी यंत्र में क्या दोष है, इसका विचार करके वह अपना दोष दूर करता है। इसके विपरीत जो देह हो अपने से पृथक नहीं मानता, वह सुधार कर ही नहीं सकता। 'यह देह, यह पिंड, यह मिट्टी का पुतला, यही मैं'- ऐसा जो मानता है, वह अपना सुधार कैसे करेगा? सुधार तभी हो सकेगा, जब हम यह मानेंगे कि यह देह साधन रूप में मुझे मिली है। चरखे में यदि किसी ने कोई कमी या दोष दिखाया, तो क्या मुझे गुस्सा आता है? बल्कि कोई दोष होता है, तो मैं उसे दूर करता हूँ। ऐसी ही बात देह की है। जैसे खेती के औजार, वैसी ही यह देह है। देह भगवान के घर की खेती का एक औजार ही है। यह औजार यदि खराब हो जाये, तो उसे अवश्य सुधारना चाहिए। यह देह एक साधन के रूप में प्रस्तुत है। अतः देह से अपने को अलग रखकर दोषों से मुक्त होने का प्रयत्न हमें करना चाहिए। इस देहरूपी साधन से मैं पृथक हूं, मैं स्वामी हूं, मालिक हूं, इस देह से काम कराने वाला, इससे उत्कृष्ट सेवा लेने वाला मैं हूँ। बचपन से ही इस प्रकार देह से अलग होने की वृत्ति सिखानी चाहिए।

9. खेल से अलग रहने वाले तटस्थ लोग जैसे खेल के गुण-दोषों को अच्छी तरह देख सकते हैं, उसी तरह हम भी देह-मन-बुद्धि से अपने को अलग रखकर ही उनके गुण-दोष परख सकेंगे। कोई कहता है- 'इधर जरा मेरी स्मरण-शक्ति कम हो गयी है, इसका कोई उपाय बताइए न!' जब मनुष्य ऐसा कहता है तब वह उस स्मरण-शक्ति से भिन्न है, यह स्पष्ट हो जाता है। वह कहता है- 'मेरी स्मरण-शक्ति खराब हो गयी है।' इसका अर्थ यह हुआ कि उसका कोई साधन, कोई औजार बिगड़ गया है। किसी का लड़का खो जाता है, किसी की पुस्तक खो जाती है, पर कोई स्वयं खो गया है, ऐसा नहीं होता। अंत में मरते समय भी उसकी देह ही सब तरह नष्ट होती है, बेकार हो जाती है, पर वह स्वयं तो भीतर से ज्यों-का-त्यों रहता है। वह निर्दोष और निरोग रहता है। यह बात समझ लेने जैसी है और यदि समझ में आ जाये, तो इससे बहुतेरी झंझटों से छुटकारा मिल जायेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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